Tuesday, June 29, 2010
बाजार के हवाले ‘हम भारत के लोग’
बढ़ती कीमतों ने जाहिर किया आम आदमी की चिंता किसी को नहीं
-संजय द्विवेदी
एक लोककल्याणकारी राज्य जब खुद को बाजार के हवाले कर दे तो कहने के लिए क्या बचता है। इसके मायने यही हैं कि राज्य ने बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है और जनता को महंगाई की ऐसी आग में झोंक दिया है जहां उसके पास झुलसने के अलावा कोई चारा नहीं है। पेट्रोलियम की कीमतें अगर हमारा प्रशासन नहीं, बाजार ही तय करेगा तो एक लोककल्याणकारी राज्य के मायने क्या रह जाते हैं। जनता के पास हर पांच साल पर जो लोग उसे राहत दिलाने की कसमें खाते हुए वोट मांगने के लिए आते हैं क्या वे दिल्ली जाकर अपने सपने और संकल्प भूल जाते हैं। केंद्र में सत्ताधारी दल ने चुनाव में वादा किया था – ‘कांग्रेस का हाथ,गरीब के साथ।’ जबकि उसकी सरकार का आचरण यह कहता है- ‘कांग्रेस का हाथ, बाजार के साथ।’ पिछले एक साल में तीन बार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा चुकी सरकार आखिर आम जनता के साथ कैसा खेल, खेल रही है। महंगाई की मार से जूझ रही जनता पर ये कीमतें कैसे प्रकारांतर से मार करती हैं किसी से छिपा नहीं है। महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के शासन में यह हो रहा है तो जनता किससे उम्मीद करे। वो कौन सा अर्थशास्त्र है जो अपने नागरिकों की तबाही के ही उपाय सोचता है। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, कृषिमंत्री सब महंगाई कम होने का वादा करते रहते हैं, किंतु घर की रसोई पर भी उनकी बुरी नजर है।
जिस देश में खाने-पीने की चीजों में आग लगी हो, वहां ऐसे कदम निराश करते हैं। भुखमरी, गरीबी का सामना कर रहे लोगों को राहत देना तो दूर सरकार उनकी दुश्वारियां बढ़ाने का ही काम कर रही है। भारत जैसे देश में अगर कीमतें बाजार तय करेगा तो हम खासी मुश्किलों में पड़ेगें। हमें अपनी व्यवस्था के छिद्रों को ढूंढकर उनका समाधान करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कार्यक्रम बनाने के बजाए आम जनता को इसका शिकार बनाना ज्यादा आसान लगता है। नेताओं और नीति-निर्माता अधिकारियों की पैसे के प्रति प्रकट पिपासा ने देश का यह हाल किया है। हमें जनता की नहीं, उपभोक्ताओं की तलाश है। सो सारा का सारा तंत्र उपभोग को बढ़ाने वाली नीतियों के क्रियान्वन में लगा है। अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट जब यह कहती है कि देश के सत्तर प्रतिशत लोग 20 रूपए से कम की रोजी पर अपना दैनिक जीवन चलाते हैं, तो सरकार इन लोगों की राहत के लिए नहीं सोचती। किंतु जब किरीट पारिख पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार के हवाले करने की बात कहते हैं तो उसे यह सरकार आसानी से मान लेती है। आर्थिक सुधारों के लिए कड़े कदम उठाने के मायने यह नहीं है जनता के जीवन जीने के अधिकार को ही मुश्किल में डाल दिया जाए। सरकार सही मायने में अपने कार्य-व्यवहार से एक जनविरोधी चरित्र का ही परिचय दे रही है। ऐसे में राहुल गांधी की उन कोशिशों को क्या बेमानी नहीं माना जाना चाहिए जिसके तहत वे गांव के आखिरी आदमी को राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं। उनकी पार्टी की सरकार का आचरण इससे ठीक उलट है। पूरा देश यह सवाल पूछ रहा है कि क्या इस सरकार की आर्थिक नीतियां उस कलावती या दलितों के पक्ष में हैं जिनके घर जाकर, रूककर राहुल गांधी, भारत को खोज रहे हैं। दरअसल यह द्वंद ही आज की राजनीति का मूल स्वभाव हो गया है।
आम आदमी का नाम लेते हुए खास आदमी के लिए यह सारा तंत्र समर्पित है। भ्रष्टाचारियों के सामने नतमस्तक यह पूरा का पूरा तंत्र आम आदमी की जिंदगी में कड़वाहटें घोल रहा है। तेल की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में जो कीमत है उससे अधिक उसपर ड्यूटी लगती है। इसलिए अगर सरकार को तेल पर सब्सिडी देनी पड़े तो देने में हर्ज क्या है। सरकार अगर हर जगह से अपने हाथ खींच लेगी और सारा कुछ बाजार की ताकतों को सौंप देगी तो ऐसी सरकार का हम क्या करेंगें। सरकार भले अपने इस कदम को तर्कों से सही साबित करे किंतु एक जनकल्याणकारी राज्य, हमेशा अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होता है, बाजार की शक्तियों का नहीं। किंतु ऐसा लगता है कि आज की सरकारें कारपोरेट, अमरीका और बाजार की ताकतों की चाकरी में ही अपनी मुक्ति समझती हैं। भ्रष्टाचार और जमाखोरी के खिलाफ कोई कारगर नीति बनाने के बजाए सरकारी तंत्र जनता से ही दूसरों की गलतियों की कीमत वसूलता है। आज सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि जरूरी चीजों की कीमतें आसमान क्यों छू रही हैं। ऐसे वक्त में सरकार कभी अंतर्राष्ट्रीय हालात का बहाना बनाती है, तो कभी पैदावार की कमी का रोना रोती है। सरकार के एक मंत्री जमाखोरी को इसका कारण बताते हैं। तो कोई कहता है राज्यों से अपेक्षित सहयोग न मिलने से हालात बिगड़े हैं। सही मायने में यह उलटबासियां बताती हैं कि किसी भी राजनीतिक दल के केंद्र में जनता का एजेंडा नहीं है। लोकतंत्र के नाम पर कारपोरेट के पुरजों और दलालों की सत्ता के गलियारों में आमद-रफ्त बढ़ी है, जो नीतियों के क्रियान्वयन में बेहद हस्तक्षेपकारी भूमिका में हैं। देश ने नई आर्थिक नीतियों के बाद जैसे भी शुभ परिणाम पाएं हों उसका आकलन होना शेष है किंतु आम जनता इसके बाद हाशिए पर चली गयी है। राजनीति के केंद्र से आम आदमी और उसकी पीड़ा का गायब होना हमारे समय की सबसे बड़ी चिंता है। देश में आंदोलनों का सिकुड़ना और तेजी से उच्चमध्यवर्ग के उदय ने चिंताएं बहुत बढ़ा दी हैं। देश में तेजी के साथ एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गरीबों और रोजमर्रा के संधर्ष में लगे लोगों को बहुत हिकारत के साथ देखता है और उन्हें एक बोझ की तरह रेखांकित है। हमारे इस कठिन समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि देश के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि कोई भी कदम उठाने के पहले यह सोचना कि इसका असर आखिरी पायदान पर खड़े आदमी पर क्या पड़ेगा। किंतु गांधी की उसी पार्टी के आज के नायक मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और मुरली देवड़ा हैं जिनका यह मंत्र है कि कीमतें बाजार तय करेगा भले ही आम आदमी को उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। बाजारवाद के इस हो-हल्ले में अगर महात्मा गांधी की बात अनसुनी की जा रही है तो हम भारत के लोग, अपने नायकों को कोसने के सिवा क्या कर सकते हैं.
Monday, June 21, 2010
बाजार की चुनौतियों से बेजार हिंदी पत्रकारिता
-संजय द्विवेदी
आज भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां न सिर्फ बढ़ गई हैं वरन उनके संदर्भ भी बदल गए हैं। पत्रकारिता के सामाजिक उत्तरदायित्व जैसी बातों पर सवालिया निशान हैं तो उसकी नैसर्गिक सैद्धांतिकता भी कठघरे में है। वैश्वीकरण और नई प्रौद्योगिकी के घालमेल से एक ऐसा वातावरण बना है जिससे कई सवाल पैदा हुए हैं। इनके वाजिब व ठोस उत्तरों की तलाश कई स्तरों पर जारी है। वैश्वीकरण व बाजारवाद की इन चुनौतियों ने हिन्दी पत्रकारिता को कैसे और कितना प्रभावित किया है इसका अध्ययन किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
समूची भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में बात करने के पहले इसे तीन हिस्सों में समझने की जरूरत है। पहली अंग्रेजी पत्रकारिता, दूसरी हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बड़े अखबारों की पत्रकारिता और तीसरी नितांत क्षेत्रीय अखबारों की पत्रकारिता। पहली, अंग्रेजी की पत्रकारिता तो बाजारवाद की हवा को आंधी में बदलने में सहायक ही बनी है, और कमोवेश इसने सारे नैतिक मूल्यों व सामाजिक सरोकारों को शीर्षासन करा दिया है। दूसरी श्रेणी में आने वाले हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार हैं। वे भी बाजारवादी हो हल्ले में अंग्रेजी पत्रकारिता के ही अनुगामी बने हुए हैं। उनकी स्वयं की कोई पहचान नहीं है और वे इस संघर्ष में कहीं ‘लोक’ से जुड़े नहीं दिखते। तीसरी श्रेणी में आने वाले क्षेत्रीय अखबार हैं, जो अपनी दयनीयता के नाते न तो खास अपील रखते हैं न ही उनमें कोई आंदोलनकारी-परिवर्तनकारी भूमिका निभाने की इच्छा शेष है। यानि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने चाहे-अनचाहे बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है।
व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो यह घाटे का सौदा नहीं है। अखबारों की छाप-छपाई, तकनीक-प्रौद्योगिकी के स्तर पर क्रांति दिखती है। वे ज्यादा कमाऊ उद्यम में तब्दील हो गए हैं। अपने कर्मचारियों को पहले से ज्यादा बेहतर वेतन, सुविधाएं दे पा रहे हैं। बात सिर्फ इतनी है कि उन सरोकारों का क्या होगा, उन सामाजिक जिम्मेदारियों का क्या होगा-जिन्हें निभाने और लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित होकर काम करने के लिए हमने यह पथ चुना था? क्या अखबार को ‘प्रोडक्ट’ बनने और संपादक को ‘ब्रांड मैनेजर’ या ‘सीईओ’ बन जाने की अनुमति दे दी जाए? बाजार के आगे लाल कालीन बिछाने में लगी पत्रकारिता को ही सिर माथे बिठा लिया जाए? क्या यह पत्रकारिता भारत या इस जैसे विकासशील देशों की जरूरतों, आकांक्षाओं को तुष्ट कर पाएगी? यदि देश की सामाजिक आर्थिक जरूरतों, जनांदोलनों को स्वर देने के बजाए वह बाजार की भाषा बोलने लगे तो क्या किया जाए? यह चिंताएं आज हमें मथ रही हैं?
आप लाख कहें लेकिन ‘विश्वग्राम’ के पीछे जिस आर्थिक चिंतन और नई प्रौद्योगिकी पर जोर है क्या उसका मुकाबला हमारी पत्रकारिता कर सकती है? बाजारवाद के खिलाफ गूंजें तो अवश्य हैं, लेकिन वे बहुत बिखरी-बिखरी, बंटी-बंटी ही हैं। वह किसी आंदोलन की शक्ल लेती नहीं दिखतीं। बिना वेग, त्वरा और नैतिक बल के आज की हिन्दी या भाषाई पत्रकारिता कैसे उदारीकारण के अर्थचिंतन से दो-दो हाथ कर सकती है?
बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति, चैनलों पर अपसंस्कृति परोसने की होड़, बढ़ती सौन्दर्य प्रतियोगिताएं, जीवन में हासिल करने के बजाए हथियाने का बढ़ता चिंतन, भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्ववाद, असंतुलित विकास और असमान शिक्षा का ढांचा कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे हम रोजाना टकरा रहे हैं और समाज में गैर बराबरी की खाई बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही मूल्यहीनता के संकट अलग हैं। भारत की दुनिया के सात बड़े बाजारों में एक होना एक संकट को और बढ़ाता है। दुनिया की सारी कम्पनियां इस बाजार पर कब्जा जमाने कुछ भी करने पर आमादा हैं।
असंतुलित विकास भी इसी व्यवस्था की नई देन है। शायद इसलिए अर्थशास्त्री प्रो. ब्रम्हानंद मानते है कि आने वाले वर्षों में ‘स्टेट बनाम मार्केट’ (राज्य बनाम बाजार) का गंभीर टकराव होगा। सो विकसित राज्यों व बाजारवादी व्यवस्था से लाभान्वित हुए राज्यों औसे आंध्र, कनोटक, गुजरात, महाराष्ट्र के खिलाफ अविकसित राज्यों का एक स्वाभाविक संघर्ष शुरू हो गया है। प्रो. ब्रम्हानंद के मुताबिक ‘‘उदारीकरण के बाद स्वास्थ्य, पेयजल, सड़क, सार्वजनिक यातायात, शिक्षा हर जगह दोहरी व्यवस्था कायम हो गई है। एक व्यवस्था निजीकरण से जुड़ी है, जहां उपभोक्ताओं के पास समृद्धि है और ‘निजीकरण’ से लाभ लेने की क्षमता भी। दूसरी ओर व्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र की सुविधाओं से जुड़ी हैं, जहां निवेश के लिए सरकार के पास जैसा नहीं है पर करोड़ों लोग इससे जुड़े हैं। केन्द्र की नीतियों से भी भेदभाव प्रायोजित हो रहा है। बीमारू राज्य और बीमारू होते जा रहे हैं।’’ ये संकट देश के भी हैं और पत्रकारिता के भी।
दुर्भाग्य है बीमारू राज्यों के अधिकांश क्षेत्रों में बोले जानी वाली भाषा हिन्दी है। अंग्रेजी के मुकाबले उसकी दयनीयता तो जाहिर है ही परन्तु सूचना की भाषा बनने की दिषा में भी हिन्दी बहुत पीछे है। साहित्य-संस्कृति, कविता-कहानी के क्षेत्रों में शिखर को छूने के बावजूद ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर हिन्दी में बहुत कम काम हुआ है। विज्ञान, प्रबंधन, प्रौद्योगिकी, उच्च वाणिज्य, उद्योग आदि क्षेत्रों में हिन्दी बेचारी साबित हुई है, जबकि यह युग सत्य है कि आज के दौर में जब तक भाषा बहुआयामी अभिव्यक्ति व विशेष सूचना की भाषा न बने उसे सीमा से अधिक महत्व नहीं मिल सकता। वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश की मानें तो – ‘‘हिन्दी को आज देश, काल, परिस्थितियों के अनुरूप सूचना की सम्पन्न भाषा बनाना जरूरी है। आज की हिन्दी पत्रकारिता के लिए यही सीमा ही सबसे बड़ी चुनौती है। बाजारवाद की चुनौतियों के खिलाफ हिन्दी पत्रकारिता का यह सृजनात्मक उत्तर होगा। आधुनिक राजसत्ता, तंत्र, बाजारवाद, विश्वग्राम की सही अंदरूनी तस्वीर लोगों तक पहुंचे, यह सायास कोशिश हो। इसके अंतर्विरोध-कुरूपता को हिन्दी या भाषाई पाठक जानें, यह प्रयास हो। यह काम अंग्रेजी प्रेस नहीं कर सकता। अंग्रेजी की नकल कर रहे भाषाई अखबार भी नहीं कर सकते, क्योंकि ये सभी माडर्न सिस्टम की उपज हैं। यही बाजारवाद इनका शक्तिस्रोत हैं।’’
अंग्रेजी के वर्चस्ववाद के खिलाफ हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की शक्ति को जगाए व पहचाने बिना अंधेरा और बढ़ता जाएगा। अंग्रेजी अखबार इस लूटतंत्र के हिस्सेदार बने हैं तो मुख्यधारा की हिन्दी-भाषाई पत्रकारिता उनकी छोड़ी जूठी पत्तलें चाट रही हैं। हिन्दी की ताकत सिर्फ सिनेमा में दिखती है, जबकि यह भी बाजार का हिस्सा है। सच कहें तो हिन्दी सिर्फ मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा बनकर रह गयी है।
बाजारवाद में मुक्त बेचने वाले हाते हैं – खरीदने वाले नहीं। हमारा पाठक यहीं ठगा जा रहा है। उसे जो कुछ यह कहकर पढ़ाया जा रहा है कि यह तुम्हारी पंसद है – दरअसल वह उसकी पसंद नहीं होती। जिस तरह एक ओर बाजार इच्छा सृजन कर रहा है, आपकी जरूरतें बढ़ी हैं और नाजायज चीजें हमारी जिन्दगी में जगह बना रही हैं। अखबार भी बाजार के इस षडयंत्र का हिस्सा बन गया है। सो पाठक केन्द्र में नहीं है, विज्ञापनदाता को मदद करने वाला ‘संदेश’ केन्द्र में है। हमने कहा – ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ पूरा विश्व एक परिवार है। ‘विश्वग्राम’ कहता है – ‘पूरा विश्व एक बाजार है।’ जाहिर है चुनौती कठिन है। विज्ञापन दाता ‘कंटेंट’ को नियंत्रित करने की भूमिका में आ गया है – यह दुर्भाग्य का क्षण है। आज हालात यह है कि पाठक ही यह तय नहीं करते कि उन्हें कौन सा अखबार पढ़ना है, अखबार ही यह भी तय कर रहे हैं कि हमें किस पाठक के साथ रहना है। कई अंग्रेजी अखबार इसी भूमिका का काम कर रहे हैं।
हिन्दी व भारतीय भाषाओं के अखबारों के सामने यह चुनौती है कि वे अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करें। वे यह सोचें कि क्या वे सूचना देने, शिक्षित करने और मनोरंजन करने के अपने बुनियादी धर्म का निर्वाह करते हुए कुछ ‘विशिष्ठ’ कर सकते हैं? क्या हमने अपने प्रस्थान बिन्दु से नाता तोड़ लिया है, क्या हम जनोन्मुखी और सरोकारी पत्रकारिता से हाथ जोड़ लेंगे। देह और भोग (बाडी एंड प्लेजर) की पत्रकारिता के पिछलग्गू बन जाएंगे? अपने समाज जीवन को प्रभावित करने वाले सवालों से मुंह चुराएंगे? उदारीकरण के नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा तक नहीं करेंगे। अपने पाठकों तक सांस्कृतिक पतन की सूचनाएं नहीं देंगे? क्या हम यह नहीं बताएंगे कि मैक्सिकों का यह हाल क्यों हुआ? थाईलैंड की वेश्यावृत्ति का बाजावाद से क्या नाता है? पत्रकारिता सार्थक भूमिका के निर्वहन में हमारे आड़े कौन आ रहा है?
हमारे एकता-अखंडता क्या पश्चिमी सांचों की बुनावट पर कायम रह सकेगी? सुविधाओं एवं सुखों के नाम पर क्या हम आत्म-समर्पण कर देंगे? ऐसे तमाम सवाल पत्रकारिता के सामने खड़े हैं। उनके उत्तर भी हमें पता है लेकिन ‘बाजावाद’ की चकाचैंध में हमें कुछ सूझता नहीं। इसके बावजूद रास्ता यही है कि हम अपने कठघरों से बाहर आकर बुनियादी सवालों से जूझें। हवा के खिलाफ खड़े होने का साहस पालें। हिन्दी पत्रकारिता की ऐतिहासिक भावभूमि हमें यही प्रेरणा देती है। यही प्रस्थान बिन्दु हमें जड़ों से जोड़ेगा और ‘वैकल्पिक पत्रकारिता’ की राह भी बनाएगा।
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Sunday, June 20, 2010
मीडिया में माओ
-अनिल सौमित्र
आउटलुक पत्रिका के ताजे अंक में अरुंधती रॉय का लंबा आलेख प्रकाशित हुआ है। कुछ ही दिनों पूर्व पश्चिम बंगाल में उन्होंने एक साक्षात्कार भी दिया। लगे हाथों एक टीवी चैनल ने भी उनका साक्षात्कार प्रसारित किया। जाहिर है अरुंधती का लिखा-कहा काफी पढ़ा और सुना जाता है। वर्तमान मीडिया में क्या लिखा गया, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है किसके द्वारा लिखा गया। अरुंधती के पाठक और दर्शक-श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग भी है। जाहिर है सबका अपना नजरिया होगा। अरुंधती का लिखा – ‘भूमकालः कॉमरेडों के साथ-साथ’ पढ़ने वाले एक मित्र ने कहा – इस आलेख में जबर्दस्त माओवादी अपील है, जैसे शोभा-डे के लिखे में सेक्स अपील होता है। पाठक ने स्मरण दिलाया- हजार चैरासी की मां’ फिल्म में भी ऐसा ही माओवादी अपील था। पाठक ने बताया अरुंधती को पढ़कर माओवादी बन जाने का मन करता है। विकास, आदिवासी और जंगल की बात करने का मन करता है। माओवादियों-नक्सलियों की तरह हत्या, लूट, डाका, वसूली, बलात्कार और अत्याचार करने का जी करता है। ऐसी प्रेरणा तो पहले कभी नहीं मिली, पहले राष्ट्रवादियों से लेकर समाजवादियों तक को पढ़ा।
अरुंधती के पास कौन-सा स्वप्न है! क्या उनका स्वप्न आदिवासियों या आम लोगों का दुःस्वप्न है? विकास के नाम पर विनाश और हिंसा को जायज ठहराने वाले ये भी तो बतायें कि आखिर माओवादी किसका विकास कर रहे हैं? भले ही माओवादी-नक्सली विकास की आड़ लेकर विनाश का तांडव कर रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक सरकारी कार्यवाई की निंदा यह कह कर कर रहे हैं कि माओवाद-नक्सलवाद पिछड़ेपन, विषमता और गरीबी के कारण पैदा हुआ है। बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ से लेकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट और आंध््राप्रदेश तक माओवादियों के मार्फत किसका विकास हुआ है, किसका विकास रुका है? ये विनाश का कॉरीडोर किसके लिए बन रहा है यह भी देखा और पूछा जाना चाहिए। दंतेवाड़ा में इंद्रावती नदी के पार माओवादियों के नियंत्रित इलाके में सन्नाटा पसरा है। जिन बच्चों को स्कूल में किताब-कॉपियों और कलम-पेंसिल के साथ होना चाहिए था, वे माओवादियों के शिविरों में गोली-बारुद और इंसास-एके 47-56 का प्रशिक्षण लेकर विनाशक दस्ते बन रहे हैंं। स्कूलों में भय के कारण पढ़ने और पढ़ाने वाले दोनों ही नदारद हैं।
निश्चित तौर पर खनिज और वन संसाधनों से भरपूर वन-प्रांतर में संघर्षरत पुलिस बल और माओवादी-नक्सली हर लिहाज से परस्पर भिन्न और असमान हैं। एक तरफ माओवादियों की पैशाचिक वृत्ति, मानवाधिकारों से बेपरवाह, देशी लूट और विदेशी अनुदान से संकलित असलहे, मीडिया का दृश्य-अद्श्य तंत्र, भय पैदा करने के हरसंभव हथकंडों से लैस तथा छल-बल से अर्जित निर्दोष-निरीह आदिवासियों का समर्थन प्राप्त, अत्यन्त सुसंगठित व दुर्दांत प्रेरणा से भरा हुआ माओवादी लडाकू छापामार बल। वहीं दूसरी ओर निर्दोंषों पर बल प्रयोग न करने की नैतिक जिम्मेदारी लिए, संसाधनों और सुविधाओं की कमी झेल रहे, राजनैतिक नेतृत्व की उहापोह से ग्रस्त, नौकरशाही के जंजाल से ग्रस्त, मानवाधिकार संगठनों के दुराग्रहों से लांछित, राज्य और केन्द्र की नीति-अनीति का शिकार, वन-प्रांतरों की भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक ढांचे से अंजान या बेहद कम जानकार सरकार के अद्र्ध-सैनिक बल। बेहतर जिंदगी की लालसा दोनों को है। एक परिवार की देश-समाज की बेहतरी चाहता है दूसरा माओवादियों का जत्था है जो किसकी बेहतरी और सुरक्षा के लिए मार-काट मचा रहा है उसे खुद नहीं मालूम। बस हत्या अभियान में मारे गए शवों और लूटे गए हथियारों की गिनती ही उन्हें करनी है। माक्र्स, लेनिन और माओ को कौन जानता है उन सुदूर वनवासी क्षेत्रों में, जानते हैं तो बस उनके नाम से चलाए जाने वाले भय को। जो वनवासी योद्धा अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर रहा था, उसकी तुलना इन माओवादियों से नहीं की जा सकती जिनका स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व में कोई विश्वास नहीं।
माओवादी लेखक और बुद्धिजीवी माओवादी-नक्सलियों को आदिवासियों और शोषितों का प्रतिनिधि बताते थकते नहीं। लेकिन कोई उनसे यह क्यों नहीं पूछता कि चारू मजूमदार और कानू सान्याल से लेकर गणपति, कोटेश्वर राव, पापाराव, रामन्ना, हिदमा, तेलगू दीपक और कोबाद गांधी जैसे कथित क्रांतिकारियों की पृष्ठभूमि आदिवासी-किसान की है या उनके विरोधी की। ये माओवादी भले ही शोषितों की लड़ाई की बात करते हों लेकिन इनके भीतर भी जातीय श्रेष्ठता का दुराग्रह भरा हुआ है। माओवादी नेता कोटेश्वर राव के नजदीकी गुरुचरण किस्कू ने एक साक्षात्कार में कहा था कि बंगाल में किशनजी की अगुआई में जारी आंदोलन आदिवासी समर्थक नहीं, आदिवासी विरोधी है।
हत्या पसंद उन क्रूर और निर्मम माओवादियों द्वारा चुनावों को पाखंड और संसद को सुअड़बाड़ा कह देने से काम नहीं चल जाता। अरुंधती को उसके आगे भी पूछना चाहिए। आखिर उनका बूचड़खाना कोई विकल्प तो नहीं हो सकता। रॉय यह भी तो बताएं कि वे भारतीय राजतंत्र का समर्थन करती हैं कि माओवादियों की तरह खुल्लम-खुल्ला तख्ता पलट का इरादा रखती हैं। अपने इस इरादे पर उन्हें राजतंत्र के इरादे की परवाह है भी या नहीं! पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी अब माओवादी क्यों हो गए? आखिर वहां से नक्सलवादी क्यों चले गए थे, क्या नक्सलवादियों का स्वप्न पश्चिम बंगाल में पूरा हो गया था। ये कैसा स्वप्न है जो बार-बार दु :स्वप्न में बदल जाता है। बंगाल की माक्र्सवादी-कम्युनिस्ट सरकार तो नक्सलियों के स्वप्न साकार करने के लिए ही बनी थी। फिर 20-30 वर्षों के माक्र्सवादी राज में उनके स्वप्न दिवास्वप्न क्यों हो गए? अभागे नक्सली, माओवादी बनने पर क्यों मजबूर हुए। बंगाल में असफल नक्सली छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के सफल माओवादी कैसे हो सकते हैं?
बकौल अरुंधती मान लिया जाए कि भारतीय संसद द्वारा 1950 में लागू किया गया संविधान जन-जातियों और वनवासियों के लिए दुःख भरा है। संविधान ने उपनिवेशवादी नीति का अनुमोदन किया और राज्य को जन-जातियों की आवास-भूमि का संरक्षक बना दिया। रातों-रात उसने जन-जातीय आबादी को अपनी ही भूमि का अतिक्रमण करने वालों में तब्दील कर दिया। मतदान के अधिकार के बदले में संविधान ने उनसे आजीविका और सम्मान के अधिकर छीन लिए। संसद द्वारा अपनाए गए संविधान से जन-जातीय समाज ही नहीं अन्य बहुत लोगों को दुःख हो सकता है तो क्या लाखों-करोड़ों लोग माओवादियों की तरह हथियार उठा लें और लाखों-करोड़ों को अपना शत्रु बना लें? निश्चित तौर पर बड़े बांधों से विस्थापन होता है। सबसे अधिक प्रभावित वनवासी-आदिवासी ही होते हैं। लेकिन सिर्फ बांधों की उंचाई का विरोध निषेधात्मक काम है, अरुंधती या मेधा पाटकर विकल्प भी तो बतांए-कुछ करके भी दिखाएं। सरकार के कल्याणकारी बातों से सिर्फ चिंता करने से नहीं होगा। सरकार और आमलोगों को भी तब चिंता सताने लगती है जब अरुंधती वन-प्रांतर में माओवादियों से मिलने जाती हैं। आदिवासियों का विकास उद्योगपति-पूंजीपति समर्थक गृहमंत्री पी. चिदंबरम वैसे ही नहीं कर सकते जैसे माओवादी समर्थक अरुंधती राय नही कर सकती. एजेंट होने का आरोप दोनों पर लग सकता है। एक पूंजीपतियों का, दूसरा माओवादियों का। वर्षों से कब्जे की जद्दोजहद गरीब और संसाधन विपन्न क्षेत्रों में नहीं हो रही है, बल्कि गरीब और संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों में हो रही है। माओवादी वहीं हैं जहां खनिज संसाधनों की मलाई है। वे वहीं अपना पैर पसार रहे हैं जहां कंपनियां उत्खनन को बेताब हैं। क्योंकि उगाही और वसूली के लिए यही उर्वर क्षेत्र है। उड़ीसा के कालाहांडी में भी गरीबी है। वहां सरकार नहीं पहुची, तो क्यों नहीं माओवादी वहां भूखमरी समस्या खत्म कर देते। अपने बौद्धिक समर्थको के साथ रेड कोरीडोर की तरह क्यो नही कोइ विकास का कोरीडोर बना देते. दुर्भाग्य से इन सर्वहारा लडाकों के वे सभी वर्ग-मित्र हैं जो इन्हें अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए असलहा, पूंजी और साधन उपलब्ध कराते हैंं। बाकी सब वर्ग शत्रु। उनके नियम में लिखा है – शत्रु को नष्ट कर ही दिया जाना चाहिए, उसके हथियार छीन लेने चाहिए और उसे अशक्त कर दिया जाना चाहिए…’’ तो इस संघर्ष में सिर्फ वहीं बचेंगे जो वर्ग मित्र बन सकेंगे, बाकी सब मिटा दिए जायेंगे।
अरुंधती को कॉमरेड कमला की बार-बार याद आती है। वे कई बार उसके बारे में सोचती हैं। वह सत्रह की है। कमर में देशी कट्टा बांधे रहती है। उस 17 वर्षीय कॉमरेड की मुस्कान पर वे फिदा हैं। होना भी चाहिए। लेकिन वह अगर पुलिस के हत्थे चढ़ गई तो वे उसे मार देंगे। हो सकता है कि वे पहले उसके साथ बलात्कार करें। अरुंधती को लगता है कि इस पर कोई सवाल नहीं पूछे जायेंगे। क्योंकि वह आंतरिक सुरक्षा को खतरा है। ऐसा तो सब प्रकार की असुरक्षा के प्रति कोई भी करेगा। क्या आंतरिक, क्या बाह्य असुरक्षा। केांई पुलिस की सिपाही सत्रह वर्षीय कमला होगी तो माओवादी क्या करेंगे? क्या वे उसे दुर्गारूपिणी मान उसकी पूजा करेंगे? बाद में वे ससम्मान उसे पुलिस मुख्यालय या उसके मां-बाप के पास पहुचा देंगे? अरुंधती उन माओवादी कॉमरेडों से पूछ लेती तो देश को पता चल जाता। अगर वो पुलिस की सिपाही कमला 17 वर्षीया आदिवासी भी होती तो हत्थे चढ़ने पर माओवादी निश्चित ही पहले बलात्कार करते और उसे उसके परिवार वालों के सामने जिंदा दफन कर देते। आदिवासी क्षेत्रों की कितनी ही कमलाएं माओवादियों के हत्थे चढ़कर बलात्कार और जिंदा दफन की शिकार हो चुकी हैं। डर के मारे आंकड़े भी संकलित नहीं होते। पुलिसिया हिंसा या आतंक के खिलाफ तो मानवाधिकार भी है और लेखक-बुद्धिजीवी भी, लेकिन माओवादी हिंसा और आतंक के खिलाफ कौन बोलेगा? बोलने वाले जाने कब एम्बुश के शिकार बना दिये जाये.
चाहे हथियारबंद माओवादी हों या कलमबंद माओवादी, देश की अनेक समस्याओं का वास्ता देकर हिंसा को जायज नहीं ठहराया जा सकता। माओवाद समर्थकों के दोगले चरित्र को समाज और सरकार को समझना ही होगा। आखिर किस बिना पर हथियारबंद माओवादी तख्ता पलट की योजना बना रहे हैंं। क्या ये कलमबंद समर्थक उनके इशारे पर चल रहे हैं? देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर, सत्ता को बंदूक की नली से प्राप्त करने की रणनीति का एक हिस्सा तो नहीं ये कलमबंद माओवादी? आज स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि बीच का कोई रास्ता नहीं दिखता। न तो सरकार के लिए और ना ही आम लोगों के लिए। फिर ये माओवादी बुद्धिजीवी विकास की कमी, मानवाधिकार, आदिवासी उत्पीड़न की बात लिख-कहकर देश के आमलोगों को गुमराह क्यों कर रहे हैं? आप अगर माओवादी हिंसा का खुलेआम विरोध नहीं करेंगे, उन्हें ग्लैमराइज करेंगे, उसके पक्ष में माहौल बनायेंगे, सरकार की नीतियों का विरोध करेंगे बिना कोई वैकल्पिक नीति बताये तो आप भी माओवादियों के संरक्षक, उनके समर्थक और उनके मददगार के रूप में क्यों न चिन्हित किए जाएं? आपके साथ भी माओवादी-नक्सलियों जैसा बर्ताव क्यों न किया जाए? जिस दिन दंतेवाड़ा में पुलिस बल और माओवादियों के बीच मुठभेड़ हो रही थी उसी दिन दिल्ली के जंतर-मंतर पर कुछ बुद्धिजीवी माओवाद विरोधी अभियान का विरोध कर रहे थे। बाद में खबर आई कि देश की राजधानी नई दिल्ली में केन्द्र सरकार के नाक के नीचे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ कथित क्रांतिकारी छात्रों ने माओवादियों द्वारा देश के पुलिस जवानों की हत्या पर जश्न मनाया। कुछ छात्रों द्वारा विरोध करने पर झड़प की नौबत आ गई। क्या लोकतंत्र, स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का यही मतलब है? क्या देश की जनता और सरकार विश्वविद्यालय को करोड़ों की सब्सिडी इसलिए देती है कि वहां से पढ़कर छात्र देश विरोधी कार्य करें। ऐसे छात्र, छात्र संगठनों और विश्वविद्यालय पर सरकार ने क्या कार्यवाई की, सरकार की क्या नीति है? देश का कानून माओवाद-नक्सलवाद समर्थकों और देश के सुरक्षा बल के विरोधियों के बारे में क्या कहता है, देश को जानने का हक है। क्या ये मीडिया के माओवादी है जो आतंक को, हिंसा को और भय को ग्लैमराइज कर रहे हैं और इसे स्वप्न में देखने लायक बना कर परोस रहे हैं। ये कलमबंद माओवादी जो हथियारबंद होने, राज्य के खिलाफ आंतंक और हिंसा का तांडव करने और समाज को क्षत-विक्षत कर देने की प्रेरणा दे रहे हैं इनके बारे में राज्य और समाज क्या सोचता है? यह कलमबंद और हथियारबंद माओ का कैसा ताना-बाना है।
(मीडिया एक्टिविस्ट व सामाजिक कार्यकर्ता अनिल सौमित्र का जन्म मुजफ्फरपुर के एक गांव में जन्माष्टमी के दिन हुआ। दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिग्री हासिल कीं। भोपाल में एक एनजीओ में काम किया। इसके पश्चात् रायपुर में एक सरकारी संस्थान में निःशक्तजनों की सेवा करने में जुट गए। भोपाल में राष्ट्रवादी साप्ताहिक समाचार-पत्र 'पांचजन्य' के विशेष संवाददाता। अनेक पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतर्जालों पर नियमित लेखन। इनसे इनके मेल anilsaumitra0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)
अतिवादी लाल दलाल और वाम मीडिया से पिटता आवाम
जयराम दास
बुद्धत्व से पहले:- एक थी सुजाता। संस्कारों में पली-बढ़ी राजकुमारी। वनदेवता का पूजा करना और उन्हें पत्र पुष्पाजंलि के साथ प्रसाद समर्पित करना उसका दैनिक कार्य था। अपने इसी कार्य के सिलसिले में वो सारी पूजा सामग्री के साथ वन देवता के समर्पण को पहुंची. वहां देखती है कि एक युवक निस्तेज सा पड़ा अंतिम सांसें गिन रहा है. तन पर नाम मात्र को वस्त्र, पेट और पीठ एकाकार. बिना देर किये सुजाता ने उस युवक का परिचार करना शुरू कर दिया. अपने साथ लाये जल से उन्हें होश में लाकर वनदेवता के लिए लाये भोजन सामग्री से उसकी क्षुधातृष्टि की. बाद में पता चला कि उस युवक का नाम सिद्घार्थ है, जो महलों का राज-वैभव ठुकरा अपनी पत्नी यशोधरा को छोड़ बुद्घत्व की तलाश में निकला है. अपने साधना को कठोरतम बनाकर आज इस हालत में पहुंच गया है कि शायद कुछ देर में इसके प्राण पखेरू उड़ जाते.
तो बुद्घत्व से भी पहले सिद्घार्थ को यह ज्ञान मिला कि चाहे तपस्या ही क्यूँ ना हो, अति सर्वथा त्याज्य है. फिर उनका बुद्घत्व और मध्यमार्ग इस तरह एकाकार हो गया कि उसका अवलंबन कर संपूर्ण एशिया ज्ञान के प्रकाश से आलोकित है. इसी विचार को एक सिद्घांत का रूप दिया बुद्घ ने और अपने शिष्य आनंद को बताया कि वीणा की तार को इतना मत कसो कि वो टूट जाये, और इतना ढीला मत छोड़ो कि उससे राग ही न निकले. आशय यह कि किसी भी तरह का अतिवाद बुराई या विनाश का पहला सोपान है. हर तरह के मीमांसक चाहे वो किसी भी देश काल परिस्थिति में हो, अति को बुरा ही मानते आये हैं.एक संस्कृत श्लोक है अति दानी बलि राजा, अति गर्वेण रावण, अति सुंदरी सीता, अति सर्वत्र वर्जयेत, अंग्रेजी में भी कहा गया है एकसिस एवरीथिंग इज बैड. तो इस उद्धरण के बहाने मीडिया द्वारा अतिवादी तत्वों को दिए जा रहे प्रश्रय पर भी गौर फरमाना समीचीन होगा.
मीडिया और अतिवाद-
किसी भी तरह के अतिवाद और मीडिया पर विमर्श मुख्यतया दो बिन्दु पर की जा सकती है। पहला संप्रेषण माध्यमों के स्वयं के द्वारा फैलाया गया अतिवाद और दूसरा अतिवादी, उग्रवादी तत्वों को मंच प्रदान करना, उन्हें समर्थन देना। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद और उसके विरूद्घ चलने वाले अभियान में मीडिया की भूमिका एक ऐसा उदाहरण है जिसमें आपको दोनों तरह के अतिवाद से एक साथ परिचय होगा. आप ताज्जुब करेंगे कि देश में ऐसे भी अभागे-अभागियां हैं जो खुलेआम नक्सली प्रवक्ता बन लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न इस सबसे बड़ी चुनौती का औचित्य निरूपण के लिए अपना मंच प्रदान करता है. इस संभंध में एक विवादास्पद लेखिका के लिखे लंबे-लंबे आलेख को प्रकाशित-प्रसारित प्रकाशित करना निश्चय ही उचित नहीं है. जिन नक्सलियों ने वनवासियों का जीना हराम कर रखा हो, जहाँ युद्घ की स्थिति हो. जहां सरकार ने जनसुरक्षा कानून लगाकर नक्सली संगठन को प्रतिबंधित करने के अलावा आतंकी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार भी संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया हो, वहां बावजूद उसके आम जनमानस को किंकर्तव्यविमूढ़ हो झेलना पड़े नक्सलियों के महिमामंडल को, आखिर क्या कहा जाय इसे?
आप सोंचे, प्रचार की यह कैसी भूख? उच्छृंखलता की कैसी हद? लोकतंत्र के साथ यह कैसी बदतमीजी? बाजारूपन की यह कैसी मजबूरी जो अपने ही बाप-दादाओं के खून से लाल हुए हाथ को मंच प्रदान कर रहा है. दुखद यह कि ऐसा सब कुछ “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” के संवैधानिक अधिकार की आड़ में हो रहा है. अफ़सोस यह है कि जिन विचारों के द्वारा मानव को सभ्यतम बनाने का प्रयास किया गया था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, धर्मनिर्पेक्षता, समानता, सांप्रदायिक सद्भाव आदि शब्दों का ही दुरूपयोग कर आज का मीडिया विशेष ने इस तरह के उग्रवाद को प्रोत्साहित कर समाज की नाक में दम कर रखा है. यूँ तो राष्ट्रीय कहे जाने वाले माध्यमों के इस तरह के दर्जनों हरकतों का जिक्र कर इस तरह के अतिवाद की चर्चा की जा सकती है. परंतु नक्सलवाद के माध्यम से ही विमर्श करना इसलिए ज़रूरी है कि देश के सार्वाधिक उपेक्षित बस्तर में चल रहे इस कुकृत्य पर आजतक किसी भी बाहरी मीडिया ने तवज्जो देना उचित नहीं समझा. अभी हाल ही में 76 जवानों की शहादत के बावजूद सानिया-शोएब प्रकरण ही महत्वपूर्ण दिखा इन दुकानदारों को. कुछ मीडिया ने ज्यादा तवज्जो दी भी तो नक्सलियों के प्रचारक समूहों, वामपंथियों द्वारा पहनाये गये लाल चश्मों से देखकर ही.खास कर सबसे ज्यादा इस सन्दर्भ में अरुंधती राय द्वारा इस हमलों की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले आलेख की ही चर्चा हुई. तो सापेक्ष भाव से एक बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विमर्श और उसका विश्लेषण आवश्यक है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम माध्यमों की उच्छृंखलता
यह सच है कि मानव सभ्यता की शुरूआत से लेकर वर्तमान तक अभिव्यक्ति से सुंदर चीज आज तक नहीं हुई. ‘अभिव्यक्ति’ ही वह अधिकार है जो आपको ‘व्यक्ति’ बनाता है. यही आपको बेजूबानों से अलग भी करता है. इस स्वतंत्रता का सम्यक उपयोग ही किसी समाज के सभ्य होने की निशानी है, इसमें भी दो राय नहीं. भारतीय साहित्य में भी इसका बहुत सुंदर उदाहरण देखने को मिलता है. रामायण में सीता को हनुमान, भगवान राम का संदेश सुनाते हुए करहते हैं :-कहेहु ते कछु दुःख घटि होई, काह कहौं यह जान न कोई…. यानि तुमसे बिछडऩे का जो दुख है, वह कह देने से कुछ कम अवश्य हो जायेगा, लेकिन किसको कहूं? मानस का यह चौपाई ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्याख्या करने हेतु काफी है. जब रहीम कहते हैं कि ‘‘निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय’’ तो यह कहीं से भी तुलसी के कहे का विरोधाभास नहीं है. मतलब यह कि या तो आप अपनी अभिव्यक्तियों को कुछ मर्यादाओं के अधीन रखें अथवा चुप ही रहना बेहतर. किसी ने कहा है कि “कह देने से दुख आधा हो जाता है और सह लेने से पूरा खत्म हो जाता है”. अगर पत्रकारीय प्रशिक्षण की भाषा का इस्तेमाल करूँ तो आपकी अभिव्यक्ति भी क्या,क्यूं, कैसे, किस तरह, किसको, किस लिए इस 6 ककार के अधीन ही होनी चाहिए. इस मर्यादा से रहित बयान, भाषण या लेखन ही अतिवादिता की श्रेणी में आता है.
भारतीय संविधान ने उपरोक्त वर्णित इसी सांस्कृतिक आत्मा का इस्तेमाल कर हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है. मीडिया को इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दो खास चीज का ध्यान रखना चाहिए. जिसका अंजाने या जानबूझकर उपेक्षा की जाती है. अव्वल तो यह कि अनुच्छेद 19 (1) ‘‘क’’ किसी प्रेस के लिए नहीं है. यह आम नागरिक को मिली स्वतंत्रता है और इसका उपयोग मीडिया को एक आम सामान्य नागरिक बनकर ही करना चाहिए और उसके हरेक कृत्य को आम नागरिक का तंत्र यानि लोकतंत्र के प्रति ही जिम्मेदार होना चाहिए. लोकतंत्र, लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति सम्मान, चुने हुए प्रतिनिधि के साथ तमीज से पेश आना भी इसकी शर्त होनी चाहिए. जैसा छत्तीसगढ़ का ही एक अखबार बार-बार एक चुने हुए मुख्यमंत्री को तो ‘‘जल्लाद’’ और ‘‘ऐसा राक्षस जो मरता भी नहीं है’’ संबोधन देता था और ठीक उसी समय नक्सल प्रवक्ता तक सलाम पहुंचाकर उसे जीते जी आदरांजलि प्रदान करता था. इस तरह की बेजा हरकतों से बचकर ही आप एक आम नागरिक की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सेदार हो सकते हैं. साथ ही राज्य की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि यदि स्व अनुशासन नहीं लागू कर पाये ऐसा कोई मीडिया समूह तो उसे सभ्य बनाने के लिए संवैधानिक उपचार करें. यदि परिस्थिति विशेष में बनाये गये कानून को छोड़ भी दिया जाए तो भी संविधान ही राज्य को ऐसा अधिकार प्रदान करती है कि वह उच्छृंखल आदतों के गुलामों को दंड द्वारा भी वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र करे. उन्हें यह ध्यान दिलाये कि विभिन्न शर्तों के अधीन दी गई यह महान स्वतंत्रता आपके बड़बोलापन के लिए नहीं है, यह आपकी इच्छा का मुहताज नहीं है। जबरदस्ती ही सही, आपको इसे आत्मार्पित करना ही होगा.
आपको उसी अनुच्छेद (19) ‘‘2’’ से मुंह मोडऩे नहीं दिया जाएगा कि आप “राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, शिष्टïचार और सदाचार के खिलाफ” कुछ लिखें या बोलें. आप किसी का मानहानि करें , भारत की अखंडता या संप्रभुता को नुकसान पहुंचायें. ‘‘बिहार बनाम शैलबाला देवी’’ मामले में न्यायालय का स्पष्ट मत था कि ‘‘ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति या ऐसे भाषण देना जो लोगों को हत्या जैसे अपराध करने के लिए उकसाने या प्रोत्साहन देने वाले हों, अनुच्छेद 19 (2) के अधीन प्रतिबंध लगाये जाने के युक्तियुक्त आधार होंगे।’’ न केवल प्रतिबंध लगाने के वरन ‘‘संतोष सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन’’ मामले में न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि ‘‘ऐसे प्रत्येक भाषण को जिसमें राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देने की प्रवृत्ति हो, दंडनीय बनाया जा सकता है.’’ आशय यह कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ढोल पीटते समय आप उसपर लगायी गयी मर्यादा को अनदेखा करने का अमर्यादित आचरण नहीं कर सकते. इसके अलावा आपकी अभिव्यक्ति, दंड प्रक्रिया की धारा ‘499’ से भी बंधा हुआ है और प्रेस भी इससे बाहर नहीं है. प्रिंटर्स मैसूर बनाम असिस्टैण्ट कमिश्नर मामले में स्पष्ट कहा गया है कि प्रेस भी इस मानहानि कानून से बंधा हुआ है. इसके अलावा संविधान के 16 वें संसोधन द्वारा यह स्थापित किया गया है कि आप भारत की एकता और अखंडता को चुनौती नहीं दे सकते. ‘‘यानि यदि भारत और चीन का युद्घ चल रहा हो तो आपको “चीन के चेयरमेन हमारे चेयरमेन हैं’’ कहने से बलपूर्वक रोका जाएगा. हर बार आपको आतंकियों को मंच प्रदान करते हुए, उन्हें सम्मानित करते हुए, जनप्रतिनिधियों को अपमानित करते हुए, उनके विरूद्घ घृणा फैलाते हुए, नक्सलवाद का समर्थन करते हुए, अपने आलेखों द्वारा ‘‘कानून हाथ में लेने’’ का आव्हान करते हुए उपरोक्त का ख्याल रखना ही होगा। स्वैच्छिक या दंड के डर से आपको अपनी जुबान पर लगाम रखना ही होगा. मीठा-मीठा गप्प-गप्प करवा-करवा थूँ-थूँ नहीं चलेगा. संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का रसास्वादन करते हुए आपको 19 (2) की ‘‘दवा’’ लेनी ही होगी. आपको महात्मा गांधी के शब्द याद रखने ही होंगे कि ‘‘आजादी का मतलब उच्छृंखलता नहीं है. आजादी का अर्थ है स्वैच्छिक संयम, अनुशासन और कानून के शासन को स्वेच्छा से स्वीकार करना.’’
(प्रवक्ता डाट काम से साभार)
(मधुबनी (बिहार) में जन्म। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर की उपाधि। अनेक प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर सतत् लेखन से विशिष्ट पहचान। कुलदीप निगम पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित। संप्रति रायपुर (छत्तीसगढ़) में 'दीपकमल' मासिक पत्रिका के समाचार संपादक। इनसे jay7feb@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)
मीडिया विमर्श के चार साल पूरे होने पर बधाई
मीडिया के विशाल अंतर्जाल में अनेक घटकों का समावेश है। इसके ताने-बाने को निरंतर देखभाल और साज-सम्भाल की जरूरत स्वयं मीडिया से जुड़े घटक करते रहें,शायद इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं है। इस दिशा में मीडिया विमर्श के बढ़ते कदमों से काफी उम्मीदें हैं। यह पत्रिका जनसंचार के विविध आयामों पर उपयोगी सामग्री प्रकाशित कर निरंतर अपनी जगह बना रही है।
- डा. रमन सिंह, मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ शासन
अप्रासंगिक नेता का अक्षम्य राजनीतिक प्रपंच
- डा. रमन सिंह
दिग्विजय सिंह सरीखे महत्वाकांक्षी नेता अपनी कारगुजारियों से संतुष्ट नहीं रहते। योजनाबद्घ रूप से मध्य प्रदेश और उसका हिस्सा रहे छत्तीसगढ़ का नाश करने के बाद अब वे दिल्ली में नए गुल खिला रहे हैं। अविभक्त राज्य के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय यहां अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं।
चरणदास महंत जैसे कुछ अंधभक्तों को छोड़कर इस राज्य में कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता। दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्तियों में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हुए नेताओं के बारे में भ्रांतियां उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता होती है। इसीलिए उनके तर्कों की पड़ताल करके बातें साफ करना भी जरूरी है।
फिलहाल मैं स्वयं को बस्तर में नक्सल समस्या और दिग्विजय की भूमिका तक सीमित रख रहा हूं। वास्तव में छत्तीसगढ़ का जन्म ही पिछड़ेपन की पीड़ा से हुआ है। उस पिछड़ेपन को बढ़ाने में दिग्विजय सिंह की भूमिका षड्यंत्रकारी की रही है। छत्तीसगढ़ में स्थितियों की विकरालता के लिए तत्कालीन अविभक्त मध्यप्रदेश में विकास का अभाव और घोर प्रशासनिक उपेक्षा जिम्मेदार है। दिग्विजय ने छत्तीसगढ़ की सम्पदा का भरपूर दोहन किया और उसके एवज में इसे कुछ भी नहीं दिया।
दिग्विजय का सात वषरें का कार्यकाल छत्तीसगढ़ के इतिहास का ‘काल युग’ माना जाता है। दिग्विजय के शासन में यह लतीफा प्रचलित था कि मप्र का अन्य किसी राज्य से सीमा विवाद नहीं हो सकता, क्योंकि यहां की उबड़-खाबड़ सड़कें देखते ही पता चल जाता है कि मध्यप्रदेश की सीमा शुरू हो गई है। दिग्विजय मेरे अच्छे मित्र हैं, परन्तु आज तक उन्होंने मुझे यह रहस्य नहीं बताया कि कोई विकास कार्य किए बगैर वह चुनाव कैसे जीत लेते थे। उनके कुशासन का फल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ आज भी भोग रहे हैं।
बस्तर का कबाड़ा किया
दिग्विजय बस्तर के प्रभारी मंत्री भी थे, उनके राज में बस्तर को मध्यप्रदेश के ‘कालापानी’ की संज्ञा दी जाती थी। उन दिनों यह धारणा थी कि जो अधिकारी जरा भी असुविधाजनक लगता, उसे बस्तर में डम्प कर दिया जाता है। दिग्विजय सिंह ने अपने कार्यकाल में बस्तर का भरपूर कबाड़ा करते हुए उसे मध्ययुग में पहुंचा दिया।
सामाजिक और आर्थिक ढांचे की घनघोर उपेक्षा की गई। उस समय जानकारी मिलती रहती थी कि नक्सली रफ्ता-रफ्ता अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं। तब दिग्विजय सरकार तंद्रा में पड़ी रही। पुलिस व्यवस्था को मजबूत बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
उसका परिणाम बाद की सरकारों का भुगतना पड़ा है। यदि उस दौरान नक्सलियों के विरुद्घ ठोस कार्रवाई की गई होती तो जवानों की शहादतों को रोका जा सकता था। विडंबना यह है कि बस्तर में नक्सल समस्या को विकराल बनाने में सबसे अधिक जिम्मेदार व्यक्ति ही अब उसके समाधान के लिए ’विकास‘ का सुझाव दे रहे हैं।
जब वे लंबे समय तक बस्तर के कर्णधार थे तो ‘विकास’ शब्द उनके एजेण्डा में कहीं था ही नहीं। दिग्विजय द्वारा की गई बस्तर की घोर उपेक्षा के कारण नक्सलियों को वहां हिंसा के बीज बोने की उर्वरा धरती मिली और ९क् के दशक में वे वहां स्थापित हो गये। जिस दलदल में बस्तर आज धंसा हुआ है उसके जनक तो खुद दिग्विजय सिंह ही थे।
भला हो अटल बिहारी वाजपेयी का कि उन्होंने दिग्विजय के कुशासन से मुक्ति दिलाने के लिए एक नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण कराया। पहले छत्तीसगढ़ के उत्तरी, पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सों में नक्सलवाद फैल चुका था, लेकिन भाजपा सरकार ने विकास के द्वारा समाज का विश्वास जीता है और नक्सली हिंसा को राज्य के दक्षिण तक सीमित किया जा सका है।
कांवरे की हत्या के समय मुख्यमंत्री कौन था ?
दिग्विजय सिंह ने अपने लेख में कहा है कि कानून और व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी मुख्यमंत्री की होती है। यहां दिग्विजय सिंह से यह पूछना होगा कि दिसम्बर 1999 में जब बालाघाट में नक्सलियों ने मध्यप्रदेश के परिवहन मंत्री लखीराम कांवरे की नृशंस हत्या कर दी थी तो उस समय मुख्यमंत्री कौन था ?
सुना तो यह भी गया था कि दिग्विजय सिंह नक्सल प्रभावित उस क्षेत्र की यात्रा करने से कन्नी काट गये थे और बहुत प्रयासों के बाद ही उन्हें कांवरे की अंत्येष्टि में जाने के लिए मनाया जा सका। श्री कांवरे की मृत्यु के षड्यंत्र की कई कहानियां हैं, जो दिग्विजय सिंह की भूमिका पर प्रश्न चिह्न भी लगाती हैं।
दिग्विजय ने बस्तर से सांसद बलीराम कश्यप के बारे में कलुषतापूर्ण बातें कही हैं। उन्होंने ऐसे व्यक्ति पर छींटाकशी की जो ४क् वषरें से अधिक समय से विधायक, मंत्री एवं सांसद के रूप में क्षेत्र की सेवा करते रहे हैं। बलीराम कश्यप और प्रमुख कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा अपनी जान जोखिम में डालकर हमेशा नक्सलियों के विरुद्ध जूझते रहे हैं। नक्सली हमलों में दोनों नेताओं ने अपने परिवार के सदस्यों को खोया है।
नक्सलवाद के विरूद्ध अपनी इसी प्रखर प्रतिबद्वता के कारण बलीराम कश्यप को ‘बस्तर का शेर’ कहा जाता है। दिग्विजय इससे अनभिज्ञ नहीं हैं, इसलिए उनके आक्षेप अक्षम्य हैं। दिग्विजय ने यह भी लिखा है ‘सूचनाएं हैं कि प्रत्येक चुनाव में नक्सली समर्थन सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को मिलता है।’ दिग्विजय से यह पूछना होगा कि क्या अपने इस वक्तव्य के समर्थन में कोई ’दिग्विजयी‘ साक्ष्य है ?
पिछले तीन विधानसभा चुनावों के नतीजे से कुछ दिलचस्प तथ्य सामने आते हैं। 1998 में दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में लड़े गये चुनाव में बस्तर क्षेत्र की 12 में से 11 विधानसभा सीटें कांग्रेस ने जीतीं। ऐसे में1998 में और उसके पूर्व बस्तर में कांग्रेस को जो सफलता मिली उसका तिलिस्म दिग्विजय सिंह ही भेद सकते हैं। 2003 के चुनाव में पासा पलट गया और 12 में से 9 पर भाजपा को विजय मिली।
2008 के चुनाव में भाजपा ने अपनी स्थिति और सुदृढ़ करते हुए 11 सीटें जीत लीं। 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव का मैं प्रभारी था। भाजपा की शानदार विजय नक्सली हिंसा के विरुद्ध बस्तर का जनादेश था। नक्सलवाद के विरुद्ध मेरी पार्टी ने बहुत स्पष्ट सुपरिभाषित और असंदिग्ध स्टैण्ड लिया है। इन्हीं कारणों से भाजपा ने लोकसभा, नगरीय स्वायत्त संस्थाओं और पंचायत चुनावों में समूचे बस्तर से अच्छी सफलता प्राप्त की।
बस्तर की जनता का अपमान
दिग्विजय सिंह के कटाक्ष न केवल लोकतंत्र बल्कि बस्तर की जनता का भी अपमान है। गत कुछ वषरें में बस्तर में सघन विकास के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाये हैं फिर भी विकास की मुहिम और नक्सलियों के विरुद्ध संघर्ष एक अत्यन्त उलझा प्रश्न है। नक्सली विकास के सबसे बड़े शत्रु बन चुके हैं। दिल्ली में बैठे हुए दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्ति बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि पहले विकास होना चाहिए।
वे इस बात का एहसास नहीं करना चाहते कि जब तक उन क्षेत्रों पर राज्य अपना प्रभुत्व स्थापित करके उन्हें अपने नियंत्रण में नहीं ले लेता तब तक विकास किया नहीं जा सकता। नक्सलियों के विरुद्ध संघर्ष शुरू करने से पहले विकास की शर्त थोपना अव्यावहारिक है। नक्सलियों ने अस्पतालों, स्कूलों, सड़कों, पंचायतों के भवन और शासकीय अधोसंरचनाओं को नष्ट कर दिया हैं।
नक्सलवाद को नियंत्रित किए बिना विकास की बात करना अत्यन्त जटिल समस्या का अतिसरलीकरण करना है। यह नक्सलवाद की गंभीर समस्या को पूर्वाग्रही चश्मे से देखना भी है। चिंतलनार के जंगलमें जवानों की नृशंस हत्याएं भी यही जताती हैं कि नक्सलियों के विरुद्ध संपूर्ण संसाधनों का उपयोग करते हुए जूझने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। नक्सली पुलिस के मनोबल पर मर्मान्तक प्रहार करना चाहते थे। वे राजनीतिक भ्रम का निर्माण भी करना चाहते थे, जिसमें वे अंशत: सफल भी हुए।
पुलिस का मनोबल ऊंचा मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि पुलिस और अद्र्घसैनिक बलों का मनोबल अभी भी बहुत ऊंचा है। सरकार उनकी मजबूती के लिए हर संभव प्रयास करेगी। साथ ही विकास कायरें को गतिशील किया जाएगा। नक्सली हमलों में जवानों के हुए बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने दिया जा सकता। यह एक लम्बा संग्राम है और सतत संघर्ष के अलावा इसका और कोई विकल्प नहीं है।
हमें लंबे युद्घ तथा और अधिक बलिदानों के लिए तैयार रहना चाहिए। चिंतलनार से सबक लेते हुए हमें अपना अभियान जारी रखना चाहिए। फिर भी दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्तियों और तथाकथित वामपंथियों द्वारा राजनीतिक प्रपंच बुना जाता है, वह चिंताजनक है। पी. चिदंबरम बौद्घिक अहंकारी हैं या नहीं, उस पर न जाते हुए मुझे यह कहने में रत्ती भर की भी हिचक नहीं है कि दिग्विजय सिंह ने जानबूझकर पूर्वाग्रही तथा प्रपंचक लेख लिखकर बौद्घिक बेईमानी कापरिचय दिया है, जिसमें केवल तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया है।
जहां चाहें बहस कर लें
नक्सलवाद से लड़ने की हमारी रणनीति स्पष्ट है। वक्त का तकाजा है कि न तो इसजटिल समस्या का अतिसरलीकरण किया जाए और न ही संशय उत्पन्न करने वाली प्रतिक्रियाएं उछाली जाएं। नक्सलवाद से लड़ने के लिए आवश्यकता है कि एक सुविचारित बहुआयामी और स्पष्ट रणनीति की, जिसमें पुलिस कार्रवाई तथा सामाजिक, आर्थिक विकास समाहित हों। नक्सलवाद को हमने विकास विरोधी, जनविरोधी, जघन्य हिंसक रूप में देखा है। इस बारे में दिग्विजय सिंह जब भी और जहां भी चाहें मैं उनसे बातचीत या बहस के लिए तैयार हूं।
(लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं, यह लेख मीडिया विमर्श के जून,2010 के अंक में प्रकाशित है)
मीडिया विमर्श के प्रभाष जोशी अंक का विमोचन
बिलासपुर। मीडिया विमर्श के प्रभाष जोशी स्मृति अंक का विमोचन बिलासपुर 7 फरवरी,2010 को सम्पन्न हुआ। विमोचन करते हुए बाएं से प्रख्यात कथाकार श्रीमती जया जादवानी, पत्रकार श्री रमेश नैयर, कथाकार श्री ह्षीकेश सुलभ, कथादेश के संपादक श्री हरिनारायण, छत्तीसगढी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार संपादक श्री बबनप्रसाद मिश्र, सद्भावना दर्पण के संपादक श्री गिरीश पंकज एवं माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष श्री पुष्पेंद्र पाल सिंह।
चल रही ज्ञान पर एकाधिकार की साजिशः सुलभ
कथादेश के संपादक हरिनारायण को बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान
बिलासपुर। कथाकार एवं संस्कृतिकर्मी ह्रषिकेश सुलभ का कहना है कि भूमंडलीकरण के युग में ज्ञान के क्षेत्र में एकाधिकार की साजिश चल रही है। जो भी सुंदर है, शुभ है और मंगल है उसका हरण हो रहा है। मीडिया का स्वरूप भस्मासुर की तरह है लेकिन वहां भी मंगल और शुभ है, जिसके लिए तमाम पत्रकार संघर्ष कर रहे हैं। वर्तमान में लोग साहित्यिक पत्रकारिता के प्रति उदासीन हैं, इसलिए सच सामने नहीं आ पा रहा है। श्री सुलभ बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के लायंस भवन में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में कथादेश ( दिल्ली) के संपादक हरिनारायण को मुख्यअतिथि प्रख्यात कवि,कथाकार एवं उपन्यासकार विनोदकुमार शुक्ल ने यह सम्मान प्रदान किया। सम्मान के तहत शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह, प्रमाणपत्र और ग्यारह हजार रूपए नकद प्रदान कर साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में किसी यशस्वी संपादक को सम्मानित किया जाता है। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा (इंदौर) के संपादक रहे स्व. श्यामसुंदर व्यास और दस्तावेज ( गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथप्रसाद तिवारी को दिया जा चुका है।
श्री सुलभ ने पत्रकारिता के सामने मौजूद संकटों की विस्तार से चर्चा की और कहा कि वर्तमान में उद्योगों के साथ अखबारों की संख्या भी बढ़ती जा रही है ऐसे में साहित्य व पत्रकारिता से जुड़े लोगों को साहस दिखाने की जरूरत है ताकि मीडिया पर गलत तत्वों का कब्जा न हो जाए। उन्होंने कहा कि कथादेश के संपादक हरिनारायण लोकमंगल के लिए काम रहे हैं, उनका सम्मान गौरव की बात है।
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने कहा कि इस सम्मान ने प्रारंभ से ही अपनी प्रतिष्ठा बना ली है। एक अच्छा पाठक होने के नाते हरिनारायण को यह सम्मान देते हुए मैं प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं। कवि-कथाकार जया जादवानी ने कहा कि शब्दों का जादू मनुष्य को जगाता है, दुख है कि पत्रकारिता इस जादू को खो रही है। पत्रकारिता समाज के मन से मनुष्य के मन तक का सफर कर सकती है। साहित्य मनुष्य के मन को सूकून देता है। वरिष्ठ पत्रकार और छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर ने कहा कि मीडिया और पत्रकारिता दो अलग ध्रुव बन गए हैं। समाचारों में मिलावट आज की एक बड़ी चिंता है। इसी तरह खबरों की भ्रूण हत्या भी हो रही है।
बख्शी सृजनपीठ, भिलाई के अध्यक्ष बबनप्रसाद मिश्र का कहना था कि जो समाज पूर्वजों के योगदान को भूल जाता है वह आगे नहीं बढ़ सकता। निरक्षर भारत की अपेक्षा आज के साक्षर होते भारत में समस्याएं बढ़ रही हैं। ऐसे समय में साहित्यकारों को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। साहित्य अकादमी, दिल्ली के सदस्य और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने कहा कि इस विपरीत समय में साहित्यिक पत्रिका निकालना बहुत कठिन कर्म है। कथादेश एक अलग तरह की पत्रिका है, इसमें साहित्यिक पत्रकारिता के तेवर हैं और देश के महत्वपूर्ण लेखकों के साथ नए लेखकों को भी इसने पहचान दी है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह ने कहा कि वर्तमान की चुनौतियों का सामना हम तभी कर सकते हैं जब सहित्य, पत्रकारिता और समाज तीनों मिलकर काम करें। उन्होंने कहा कि यह सम्मान साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों का सेतु बनता हुआ दिख रहा है। मीडिया विमर्श के संपादक डा. श्रीकांत सिंह ने साहित्य के संकट की चर्चा करते हुए कहा कि संकट के दौर का साहित्य ही सच्चा और असरदार साहित्य होता है। पत्रकारिता के अवमूल्यन पर उन्होंने कहा कि पाठक सूचनाओं से वंचित हो रहे हैं। भूमंडलीकरण के नशे में मीडिया पैसे के पीछे भाग रहा है, इससे देश या प्रदेश का विकास नहीं होगा। साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका दूर्वादल ( बस्ती, उप्र) के संपादक डा. परमात्मानाथ द्विवेदी ने समाज में बाजार की भूमिका की चर्चा करते हुए कहा कि इससे सारे रिश्ते खत्म हो रहे हैं। इस स्थिति से हमें सिर्फ साहित्य ही जूझने की शक्ति दे सकता है।
इस मौके पर सम्मानित हुए संपादक हरिनारायण ने अपने संबोधन में कहा कि इसे छद्म विनम्रता ही माना जाएगा यदि मैं कहूं कि इस सम्मान को प्राप्त कर मुझे खुशी नहीं हो रही है। बल्कि इसे मैं एक उपलब्धि की तरह देखता हूं। मेरी जानकारी में साहित्यिक पत्रकारिता के लिए यह तो अकेला सम्मान है। उन्होंने कहा कि मैंने शुऱू से रचना को महत्व दिया। कथादेश में संपादकीय न लिखने के प्रश्न का जवाब देते हुए हरिनारायण ने कहा कि इसे लेकर शुरू से ही मेरे मन में द्वंद रहा है। क्योंकि वर्तमान परिवेश में अधिकतर संपादकीयों में अपने गुणा-भाग, आत्मविज्ञापन, झूठे दावे, सतही वैचारिक मुद्रा,उनके अंतविर्रोध या रचना की जगह अपने हितकारी लेखकों का अतिरिक्त प्रोजेक्शन ही नजर आता है। जिससे साहित्य का वातावरण दूषित हुआ है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष श्यामलाल चतुर्वेदी ने कहा कि अखबारों ने जमीनी समस्याओं को निरंतर उठाया है किंतु आज उनपर सवाल उठ रहे हैं तो उन्हें अपनी छवि के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि शब्दों की सत्ता से भरोसा उठ गया तो कुछ भी नहीं बचेगा।
कार्यक्रम के प्रारंभ में स्वागत भाषण बेनीप्रसाद गुप्ता ने किया। संचालन छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर हिंदी की प्राध्यापक डा. सुभद्रा राठौर ने तथा आभार प्रदर्शन बिलासपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष शशिकांत कोन्हेर ने किया। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के अनेक महत्वपूर्ण रचनाकार, साहित्यकार, पत्रकार एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे। जिनमें प्रमुख रूप से रविवार डाट काम के संपादक आलोकप्रकाश पुतुल, पत्रकार नथमल शर्मा, कथाकार सतीश जायसवाल, रामकुमार तिवारी, संजय द्विवेदी, भूमिका द्विवेदी, कपूर वासनिक,डा. विनयकुमार पाठक, डा. पालेश्वर शर्मा, सोमनाथ यादव, अचिंत्य माहेश्वरी, प्रवीण शुक्ला, हर्ष पाण्डेय, यशवंत गोहिल, हरीश केडिया, बजरंग केडिया, पूर्व विधायक चंद्रप्रकाश वाजपेयी, बलराम सिंह ठाकुर, पं. रामनारायण शुक्ल, व्योमकेश त्रिवेदी आदि मौजूद रहे। इस अवसर मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने मीडिया विमर्श के प्रभाष जोशी स्मृति अंक का विमोचन किया। इसके अलावा उप्र के बस्ती जिले से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका दूर्वादल के नवीन अंक का विमोचन भी हुआ।
कानू सान्यालः विकल्प के अभाव की पीड़ा
- संजय द्विवेदी
कुछ ही साल तो बीते हैं कानू सान्याल रायपुर आए थे। उनकी पार्टी भाकपा (माले) का अधिवेशन था। भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार मनोहर चौरे ने मुझे कहा तुम रायपुर में हो, कानू सान्याल से बातचीत करके एक रिपोर्ट लिखो। खैर मैंने कानू से बात की वह खबर भी लिखी। किंतु उस वक्त भी ऐसा कहां लगा था कि यह आदमी जो नक्सलवादी आंदोलन के प्रेरकों में रहा है कभी इस तरह हारकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाएगा। जब मैं रायपुर से उनसे मिला तो भी वे बस्तर ही नहीं देश में नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसा और काम करने के तरीके पर खासे असंतुष्ट थे। हिंसा के द्वारा किसी बदलाव की बात को उन्होंने खारिज किया था। मार्क्सवाद-लेलिनवाद-माओवाद ये शब्द आज भी देश के तमाम लोगों के लिए आशा की वैकल्पिक किरण माने जाते हैं। इससे प्रभावित युवा एक समय में तमाम जमीनी आंदोलनों में जुटे। नक्सलबाड़ी का आंदोलन भी उनमें एक था। जिस नक्सलबाड़ी से इस रक्तक्रांति की शुरूआत हुई उसकी संस्थापक त्रिमर्ति के एक नायक कानू सान्याल की आत्महत्या की सूचना एक हिला देने वाली सूचना है, उनके लिए भी जो कानू से मिले नहीं, सिर्फ उनके काम से उन्हें जानते थे। कानू की जिंदगी एक विचार के लिए जीने वाले एक ऐसे सेनानी की कहानी है जो जिंदगी भर लड़ता रहा उन विचारों से भी जो कभी उनके लिए बदलाव की प्रेरणा हुआ करते थे। जिंदगी के आखिरी दिनों में कानू बहुत विचलित थे। यह आत्महत्या (जिसपर भरोसा करने को जी नहीं चाहता) यह कहती है कि उनकी पीड़ा बहुत घनीभूत हो गयी होगी, जिसके चलते उन्होंने ऐसा किया होगा।
नक्सलबाड़ी आंदोलन की सभी तीन नायकों का अंत दुखी करता है। जंगल संथाल,मुठभेड़ में मारे गए थे। चारू मजूमदार, पुलिस की हिरासत में घुलते हुए मौत के पास गए। कानू एक ऐसे नायक हैं जिन्होंने एक लंबी आयु पायी और अपने विचारों व आंदोलन को बहकते हुए देखा। शायद इसीलिए कानू को नक्सलवाद शब्द से चिढ़ थी। वे इस शब्द का प्रयोग कभी नहीं करते थे। उनकी आंखें कहीं कुछ खोज रही थीं। एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि मुझे अफसोस इस बात का है कि I could not produce a communist party although I am honest from the beginning.यह सच्चाई कितने लोग कह पाते हैं। वे नौकरी छोड़कर 1950 में पार्टी में निकले थे। पर उन्हें जिस विकल्प की तलाश थी वह आखिरी तक न मिला। आज जब नक्सल आंदोलन एक अंधे मोड़पर है जहां पर वह डकैती, हत्या, फिरौती और आतंक के एक मिलेजुले मार्ग पर खून-खराबे में रोमांटिक आंनद लेने वाले बुध्दिवादियों का लीलालोक बन चुका है, कानू की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। कानू साफ कहते थे कि “किसी व्यक्ति को खत्म करने से व्यवस्था नहीं बदलती। उनकी राय में भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें एक तरह का रुमानीपन है। उनका कहना है कि रुमानीपन के कारण ही नौजवान इसमें आ रहे हैं लेकिन कुछ दिन में वे जंगल से बाहर आ जाते हैं।” देश का नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं। नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है।
कानू की बात आज के हो-हल्ले में अनसुनी भले कर दी गयी पर कानू दा कहीं न कहीं नक्सलियों के रास्ते से दुखी थे। वे भटके हुए आंदोलन का आखिरी प्रतीक थे किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही। भाकपा(माले) के माध्यम से वे एक विकल्प देने की कोशिश कर रहे थे। कानू साफ कहते थे चारू मजूमदार से शुरू से उनकी असहमतियां सिर्फ निरर्थक हिंसा को लेकर ही थीं। आप देखें तो आखिरी दिनों तक वे सक्रिय दिखते हैं, सिंगुर में भूमि आंदोलन शुरू हुआ तो वे आंदोलनकारियों से मिलने जा पहुंचते हैं। जिस तरह के हालत आज देखे जा रहे हैं कनु दा के पास देखने को क्या बचा था। छत्रधर महतो और वामदलों की जंग के बीच जैसे हालात थे। उसे देखते हुए भी कुछ न कर पाने की पीड़ा शायद उन्हें कचोटती होगी। अब आपरेशन ग्रीन हंट की शुरूआत हो चुकी है। नक्सलवाद का विकृत होता चेहरा लोकतंत्र के सामने एक चुनौती की तरह खड़ा है कानू सान्याल का जाना विकल्प के अभाव की पीड़ा की भी अभिव्यक्ति है। इसे वृहत्तर संबंध में देखें तो देश के भीतर जैसी बेचैनी और बेकली देखी जा रही है वह आतंकित करने वाली हैं। आज जबकि बाजार और अमरीकी उपनिवेशवादी तंत्र की तेज आंधी में हम लगभग आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं तब कानू की याद हमें लड़ने और डटे रहने का हौसला तो दे ही सकती है। इस मौके पर कानू का जाना एक बड़ा शून्य रच रहा है जिसे भरने के लिए कोई नायक नजर नहीं आता।
(स्रोतः मीडिया विमर्श, जून, 2010)
मीडिया विमर्श लेख प्रतियोगिता-1 के परिणाम
मीडिया विमर्श लेख प्रतियोगिता-1 के परिणाम
विषयः मीडिया और नक्सलवाद
प्रथम पुरस्कारः एक हजार रूपएः श्री अमित कुमार चौधरी, पटना (बिहार)
द्वितीय पुरस्कारः पांच सौ रूपएः सुश्री पूजा श्रीवास्तव, भोपाल (मप्र)
तृतीय पुरस्कारः पांच सौ रूपएः मधुमिता पाल, रायपुर (छत्तीसगढ़)
सांत्वना पुरस्कारः मीडिया विमर्श की एक साल की सदस्यताः
श्री रविशंकर सिंह, भोपाल (मप्र)श्री केशवानंद धर दुबे, कोलकाता (पश्चिम बंगाल)सुश्री दीपिका शर्मा, भोपाल(मप्र)
श्री बिकास कुमार शर्मा, भोपाल (मप्र),श्री विवेक कुमार पाण्डेय, पटना( बिहार),श्री नीलोत्पल कुमार दुबे,महाराजगंज (उप्र), श्री चंद्रिका प्रसाद, बस्ती ( उप्र), सुश्री आदिति पाठक, फरूर्खाबाद (उप्र),श्री कुंदन पाण्डेय, भोपाल (मप्र), सुश्री सर्जना चतुर्वेदी,भोपाल (मप्र)
इनके प्रयास भी प्रशंसनीय रहेः सर्वश्री आशुतोष कुमार मिश्र (महाराजगंज, उप्र),सुनील कुमार वर्मा (भोपाल, मप्र), सुश्री सीमा देवी(रायपुर,छत्तीसगढ़),संजिता चंद्राकर (रायपुर,छत्तीसगढ़), शिल्पी सिंह (पटना, बिहार), आरती कुमारी( रायपुर, छत्तीसगढ़)
निर्णायक गणः डा. सुभद्रा राठौर(रायपुर),श्री संदीप भट्ट,श्री लालबहादुर ओझा( भोपाल)
सभी विजेताओं को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
-मीडिया विमर्श परिवार
कायर नक्सली और बहादुर सरकारें
लोकतंत्र विरोधी ताकतों से निर्णायक लड़ाई का समय आ गया है
- संजय द्विवेदी
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों द्वारा लगभग 76 जवानों की हत्या के बाद कहने के लिए बचा क्या है। केंद्रीय गृहमंत्री नक्सलियों को कायर कह रहे हैं, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नक्सलियों की कार्रवाई को कायराना कह रहे हैं पर देश की जनता को भारतीय राज्य की बहादुरी का इंतजार है। 12 जुलाई, 2009 छत्तीसगढ़ में ही राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक सहित 29 पुलिसकर्मियों को नक्सलियों ने ऐसी ही एक घटना में मौत के घाट उतार दिया था। राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का गृहजिला भी है। चुनौती के इस अंदाज के बावजूद हमारी सरकारों का हाल वही है। केंद्रीय गृहमंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हर घटना के बाद नक्सलियों को इस कदर कोसने लगते हैं जैसे इस जुबानी जमाखर्च से नक्सलियों का ह्रदय परिवर्तन हो जाएगा।
सुरक्षा बलों और आम आदिवासी जनों का जिस तरह नक्सली सामूहिक नरसंहार कर रहे हैं यह सबसे बड़ी त्रासदी है। बावजूद इसके सरकारों का भ्रम कायम है। लोकतंत्र के सामने चुनौती बनकर खड़े नक्सलवाद के खिलाफ भी हमारी राजनीति का भ्रम अचरज में डालता है। क्या कारण है कि हमारी राजनीति इतने खूनी उदाहरणों के बावजूद लोकतंत्र के विरोधियों को ‘अपने बच्चे’ कहने का साहस पाल लेती है। क्या ये इतनी आसानी से अर्जित लोकतंत्र है जिसे हम किसी हिंसक विचारधारा की भेंट चढ़ जाने दें। हिंसा से कराह रहे तमाम इलाके हमारे लोकतंत्र के सामने सवाल की तरह खड़े हैं। हमारी राजनीति के पास के विमर्श, बैठकें, आश्वासन और शब्दजाल ही हैं। अपने सुरक्षाबलों को हमने मौत के मुंह में झोंक रखा है जबकि हमें खुद ही नहीं पता कि हम चाहते क्या हैं। हम नक्सलियों को कोसने और उन्हें यह बताने में लगे हैं कि वे कितने अमानवीय हैं। इन शब्दजालों से क्या हासिल होने वाला है। हम नक्सलियों को कायर और अमानवीय बता रहे हैं। अमानवीय तो वे हैं यह साबित है पर कायर हैं यह साबित करने के लिए हमारे राज्य ने कौन से कदम उठाए हैं, जिससे हमारा राज्य बहादुर साबित हो सके। कुछ रूमानी विचारक अपनी कल्पनाओं में नक्सलियों के महिमामंडन में लगे हैं। जैसे कि नक्सली कोई बहुत महान काम कर रहे हैं। अफसोस कि वे विचारक नक्सलियों के पक्ष में महात्मा गांधी को भी इस्तेमाल कर लेते हैं। भारतीय राज्य के सामने उपस्थित यह चुनौती बहुत विकट है किंतु इसे सही संदर्भ में समझा नहीं जा रहा है। शब्दजाल ऐसे की आज भी तमाम बुद्धिजीवी ‘नक्सली हिंसा’ की आलोचना कर रहे हैं, ‘नक्सलवाद’ की नहीं। आखिर विचार की आलोचना किए बिना, आधी-अधूरी आलोचना से क्या हासिल। सारा संकट इसी बुद्धिवाद का है। अगर हम नक्सलवाद के विचार से जरा सी भी सहानुभूति रखते हैं तो हम अपनी सोच में ईमानदार कैसे कहे जा सकते हैं। नक्सलवाद या माओवाद स्वयं में लोकतंत्र विरोधी विचार है। उसे किसी लोकतंत्र में शुभ कैसे माना जा सकता है। हमें देखना होगा कि रणनीति के मामले में हमारे विभ्रम ने ही हमारा ये हाल किया है। हम बिना सही रणनीति के अपने ही जवानों की बलि ले रहे हैं। ऐसी अधकचरी समझ से हम नक्सलवादियों की सामूहिक और चपल रणनीति से कैसे मुकाबला करेगें। आजतक के उदाहरणों से तो यही साबित होता है और नक्सली हमारी रणनीति को धता बताते आए हैं। राज्य की हिंसा के अरण्यरोदन से घबराई हमारी सरकारें, भारतीय नागरिकों और जवानों की मौत पर सिर्फ स्यापा कर रही हैं। हमारी सरकार कहती हैं कि नक्सली अमानवीय हरकतें कर रहे हैं। आखिर आप उनसे मानवीय गरिमा की अपेक्षा ही क्यों कर रहे हैं। नक्सलवाद कभी कैसा था, इसकी रूमानी कल्पना करना और उससे किसी भी प्रकार की नैतिक अपेक्षाएं पालना अंततः हमें इस समस्या को सही मायने में समझने से रोकना है। वह कैसा भी विचार हो यदि उसकी हमारे लोकतंत्र और संविधान में आस्था नहीं है तो उसका दमन करना किसी भी लोकतांत्रिक विचार की सरकार व जनता की जिम्मेदारी है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वे लोकतंत्र को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और हम अपने लोकतंत्र को नष्ट करने की साजिशों का महिमामंडन कर रहे हैं।
सवाल सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन का नहीं हैः
यह सोच बेहद बचकानी है कि अभाव के चलते आदिवासी समाज नक्सलवाद की ओर बढ़ा है। आदिवासी अपने में ही बेहद संतोष के साथ रहने वाला समाज है। जिसकी जरूरतें बहुत सीमित हैं। यह बात जरूर है कि आज के विकास की रोशनी उन तक नहीं पहुंची है। नक्सलियों ने उनकी जिंदगी में दखल देकर हो सकता है उन्हें कुछ फौरी न्याय दिलाया भी हो, पर अब वे उसकी जो कीमत वसूल रहे हैं, वह बहुत भारी है। जिसने एक बड़े इलाके को युद्धभूमि में तब्दील कर दिया है। हां, इस बात के लिए इस अराजकता के सृजन को भी महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए कि इस बहाने इन उपेक्षित इलाकों और समाजों की ओर केंद्र सरकार गंभीरता से देखने लगी है। योजना आयोग भी आज कह रहा है कि इन समाजों की बेसिक जरूरतों को पूरा करना जरूरी है। यह सही मायनों में भारतीय लोकतंत्र और हमारी आर्थिक योजनाओं की विफलता ही रही कि ये इलाके उग्रवाद का गढ़ बन गए। दूसरा बड़ा कारण राजनीतिक नेतृत्व की नाकामी रही। राजनैतिक दलों के स्थानीय नेताओं ने नक्सल समस्या के समाधान के बजाए उनसे राजनीतिक लाभ लिय़ा। उन्हें पैसे दिए, उनकी मदद से चुनाव जीते और जब यह भस्मासुर बन गए तो होश आया।
जवानों के लिए क्यों सूखे आंसूः
देश की महान लेखिका अरूंधती राय ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण पत्रिका में एक लेख लिखकर अपनी बस्तर यात्रा और नक्सलियों के महान जनयुध्द पर रोचक जानकारियां दी हैं और पुलिस की हिंसा को बार-बार लांछित किया है। महान लेखिका क्या दंतेवाड़ा के शहीदों और उनके परिजनों की पीड़ा को भी स्वर देने का काम करेंगीं। जाहिर वे ऐसा नहीं करेंगीं। हमारे मानवाधिकार संगठन, जरा –जरा सी बातों पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं, आज वे कहां हैं। संदीप पाण्डेय, मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी की प्रतिक्रियाओं की देश प्रतीक्षा कर रहा है। मारे गए जवान निम्न मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि के ही थे, इसी घरती के लाल। लेकिन लाल आतंक ने उन्हें भी डस लिया है। नक्सलवाद या माओवाद का विचार इसीलिए खारिज करने योग्य है कि ऐसे राज में अरूंधती को माओवाद के खिलाफ लिखने की, संदीप पाण्डेय को कथित नक्सलियों के पक्ष में धरना देने की आजादी नहीं होगी। तब राज्य की हिंसा को निंदित नहीं,पुरस्कृत किया जाएगा। ऐसे माओ का राज हमारे जिंदगीं के अंधेरों को कम करने के बजाए बढ़ाएगा ही। जिन्हें नक्सलवाद में इस देश का भविष्य नजर आ रहा है वे सावन के अंधों सरीखे हैं। वे भारत को जानते हैं, न भारत की शक्ति को। उन्हें विदेशी विचारों, विदेशी सोच और विदेशी पैसों पर पलने की आदत है। वे नहीं जानते कि यह देश कभी भी किसी अतिवादी विचार के साथ नहीं जी सकता। लोकतंत्र इस देश की सांसों में बसा है। यहां का आम आदमी किसी भी तरह के अतिवादी विचार के साथ खड़ा नहीं हो सकता। जंगलों में लगी आग किन ताकतों को ताकत दे रही है यह सोचने का समय आ गया है। भारत की आर्थिक प्रगति से किन्हें दर्द हो रहा है यह बहुत साफ है। आंखों पर किसी खास रंग का चश्मा हो तो सच दूर रहा जाता है। बस्तर के दर्द को, आदिवासी समाज के दर्द को वे महसूस नहीं कर सकते जो शहरों में बैठकर नक्सलियों की पैरवी में लगे हैं। जब झारखंड के फ्रांसिस इंदुरवर की गला रेतकर हत्या कर दी जाती है, जब बंगाल के पुलिस अफसर को युद्ध बंदी बना कर छोड़ा जाता है, राजनांदगांव जिले के एक सरपंच को गला रेतकर हत्या की जाती है, गढ़चिरौली में सत्रह पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी जाती है तब मानवाधिकारों के सेनानी और नक्सलियों के शुभचिंतक खामोश रहते हैं। उन्हें तो सारी परेशानी उस सलवा जूडूम से जो बस्तर के जंगलों में नक्सलियों के खिलाफ हिम्मत से खड़ा है। पर इतना जरूर सोचिए जो मौत के पर्याय बन सके नक्सलियों के खिलाफ हिम्मत से खड़े हैं क्या उनकी निंदा होनी चाहिए। उनकी हिम्मत को दाद देने के बजाए हम सलवा जूडूम के खिलाफ लड़ रहे हैं। इस बुद्धिवादी जमात पर तरस खाने के अलावा क्या किया जा सकता है।
जनतंत्र को असली लोकतंत्र में बदलने की जरूरतः
लोकतंत्र अपने आप में बेहद मोहक विचार है। दुनिया में कायम सभी व्यवस्थाओं में अपनी तमाम कमियों के बावजूद यह बेहद आत्मीय विचार है। हमें जरूरत है कि हम अपने लोकतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने का काम करें। उसकी कमियों को कम करने या सुधारने का जतन करें न कि लोकतंत्र को ही खत्म करने मे लगी ताकतों का उत्साहवर्धन करें। लोकतांत्रिक रास्ता ही अंततः नक्सल समस्या का समाधान है। ऐसे तर्क न दिए जाएं कि आखिर इस व्यवस्था में चुनाव कौन लड़ सकता है। पूंजीपतियों, ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों का अगर कोई काकस हमें बनता और लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करता दिख रहा है तो इसके खिलाफ लड़ने के लिए सारी सरंजाम इस लोकतंत्र में ही मौजूद हैं। अकेले सूचना के अधिकार के कानून ने लोकतंत्र को मजबूत करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। हमें ऐसी जनधर्मी व्यवस्था को बनाने और अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों से जनचेतना पैदा करने के काम करने चाहिए।देश की सरकार को चाहिए कि वह उन सूत्रों की तलाश करे जिनसे नक्सली शक्ति पाते हैं। नक्सलियों का आर्थिक तंत्र तोड़ना भी बहुत जरूरी है। विचारधारा की विकृति व्याख्या कर रहे बुद्धिजीवियों को भी वैचारिक रूप से जवाब देना जरूरी है ताकि अब लगभग खूनी खेल खेलने में नक्सलियों को महिमामंडित करने से रोका जा सके। राजनीतिक नेतृत्व को भी अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए नक्सलियों के दमन, आदिवासी क्षेत्रों और समाज के सर्वांगीण विकास, वैचारिक प्रबोधन के साथ-साथ समाजवैज्ञानिकों के सहयोग से ऐसा रास्ता निकालना चाहिए ताकि दोबारा लोकतंत्र विरोधी ताकतें खून की होली न खेल सकें और हमारे जंगल, जल और जमीन के वास्तविक मालिक यानि आदिवासी समाज के लोग इस जनतंत्र में अपनी बेहतरी के रास्ते पा सकें। तंत्र की संवेदनशीलता और ईमानदारी से ही यह संकट टाला जा सकता है, हमने आज पहल तेज न की तो कल बहुत देर हो जाएगी। सारी जंग आज इसी विचार पर टिकी है कि आपको गणतंत्र चाहिए गनतंत्र। लोकतंत्र चाहिए या माओवाद। जाहिर तौर पर हिंसा पर टिका कोई राज्य जनधर्म नहीं निभा सकता। भारत के खिलाफ माओवादियों की यह जंग किसी जनमुक्ति की लड़ाई नहीं वास्तव में यह लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ है। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ जाएं बेहतर, वरना हमारे पास सड़ांध मारती हिंसा और देश को तोड़ने वाले विचारों के अलावा कुछ नहीं बचेगा। उम्मीद है चिंदबरम साहब भी कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगें। इतिहास की इस घड़ी में नक्सलप्रभावित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने कर्तव्य के निवर्हन में किंतु-परंतु जैसे विचारों से इस जंग को कमजोर न होने दें। (स्रोतः मीडिया विमर्श,अप्रैल-जून,2010 के अंक से साभार)
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Saturday, June 19, 2010
मिक्स मसाला खबरों के दौर में न्यूज चैनल
मनोरंजन प्रधान खबरों ने बदल दिया है समाचार चैनलों का चरित्र -संजय द्विवेदी
भरोसा नहीं होता कि खबरें इतनी बदल जाएंगीं। समाचार चैनलों पर खबरों को देखना अब मिक्स मसाले जैसे मामला है। खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर का ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी। आज यह कहना मुश्किल है कि आप समाचार चैनल देख रहे हैं या कोई मनोरंजन चैनल। कथ्य और प्रस्तुति के मोर्चे पर दोनों में बहुत अंतर नहीं दिखता।
मनोरंजन चैनल्स पर चल रहे कार्यक्रमों के आधार पर समाचार चैनल अपने कई घंटे समर्पित कर रहे हैं। उन पर चल रहे रियालिटी शो, नृत्य संगीत और हास्य-व्यंग्य के तमाम कार्यक्रमों की पुनःप्रस्तुति को देखना बहुत रोचक है।समाचारों की प्रस्तुति ज्यादा नाटकीय और मनोरंजक बनाने पर जोर है। ऐसे में उस सूचना का क्या हो जिसके इंतजार में दर्शक न्यूज चैनल पर आता है।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे। खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब नज़रिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। ख़बर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे ! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी है...ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए। वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं ! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं। दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपना असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर ख़बर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ मे है कोई जादुई निदेशक । ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसर्गिक विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए । समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रूपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ? बाडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने ‘मेघा रे मेघा’ नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन ख़बर देखी गई और महसूस भी की गई। कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या सैफ अली खान की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा । सलमाल और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नज़रिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई ख़बर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही। एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। खबरें भी हमारा मनोरंजन करें, यह एक नया सच हमारे सामने है। खबरें मनोरंजन का माध्यम बनीं, तभी तो बबली और बंटी एनडीटीवी पर खबर पढ़ते नजर आए। टीआरपी के भूत ने दरअसल हमारे आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। इसलिए हमारे चैनलों के नायक हैं- राखी सावंत, बाबा रामदेव और राजू श्रीवास्तव। समाचार चैनल ऐसे ही नायक तलाश रहे हैं और गढ़ रहे हैं। कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं । ‘भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आंख का आकर्षण बनें यही टीवी न्यूज चैनलों का मूल विमर्श है । जीवन शैली अब ‘लाइफ स्टाइल’ में बदल गयी है । बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं । नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊँची ऊँची इमारतें, डियाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह । इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसता, उगलते न्यूज चैनल एक ऐसी दुनिया रच रहे है जहाँ बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग।अब तो यह कहा जाने लगा है खबर देखनी है तो डीडी न्यूज पर जाओ, कुछ डिबेट देखनी है तो लोकसभा चैनल लगा लो। हिंदी के समाचार चैनलों ने यह मान लिया है हिंदी में मनोरंजन बिकता है। अंधविश्वास बिकता है। बकवास बिकती है। राखी, राजू, सुनील पाल बिकते हैं। हालांकि इसके लिए किसी समाचार समूह ने कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया है। किंतु यह आत्मविश्वासहीनता न्यूज चैनलों और मनोरंजन चैनलों के अंतर को कम करने का काम जरूर कर रही है। विचार के क्षेत्र में नए प्रयोगों के बजाए चैनल चमत्कारों,हाहाकारों, ठहाकों, विलापों की तलाश में हैं। जिनसे वे आम दर्शक की भावनाओं से खेल सकें। यह क्रम जारी है, जारी भी रहेगा। जब तक आप रिमोट का सही इस्तेमाल नहीं सीख जाते, तब तक चौंकिए मत क्योंकि आप न्यूज चैनल ही देख रहे हैं।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
- संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
Web-site- www.sanjaydwivedi.com
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मीडिया विमर्श का नवीनतम अंक( अप्रैल-जून,2010)देश में मौजूद नक्सलवाद की चुनौतियों पर केंद्रित है। जिसमें देश के प्रख्यात लेखकों और रचनाकारों ने नक्सलवाद की समस्या पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। इस अंक के प्रमुख लेखकों में सर्वश्री डा. रमन सिंह,रमेश नैयर, प्रकाश दुबे, बसंत कुमार तिवारी, डा. महावीर सिंह, धनंजय चोपड़ा, कनक तिवारी, प्रो. कमल दीक्षित, डा. सुभद्रा राठौर, डा.श्रीकांत सिंह, डा. शाहिद अली, शिवअनुराग पटैरया, उमाशंकर मिश्र, संदीप भट्ट, अनिल विभाकर, शंकर शरण, संजय द्विवेदी, महाश्वेता देवी, ब्रजेश राजपूत, अनिल सौमित्र, लीना, डा. पवित्र श्रीवास्तव, पंकज झा, मीता उज्जैन, अबू तोराब और केशव आचार्य शामिल हैं। पत्रिका का मूल्य- 25 रूपए है। जिसे धनादेश या पचीस रूपए का डाक टिकट भेजकर पत्रिका के भोपाल स्थित इस पते- संपादकः मीडिया विमर्श, 428, रोहित नगर, फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल-39 (मप्र) से मंगाया जा सकता है।
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