Sunday, June 20, 2010

अप्रासंगिक नेता का अक्षम्य राजनीतिक प्रपंच


- डा. रमन सिंह

दिग्विजय सिंह सरीखे महत्वाकांक्षी नेता अपनी कारगुजारियों से संतुष्ट नहीं रहते। योजनाबद्घ रूप से मध्य प्रदेश और उसका हिस्सा रहे छत्तीसगढ़ का नाश करने के बाद अब वे दिल्ली में नए गुल खिला रहे हैं। अविभक्त राज्य के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय यहां अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं।
चरणदास महंत जैसे कुछ अंधभक्तों को छोड़कर इस राज्य में कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता। दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्तियों में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हुए नेताओं के बारे में भ्रांतियां उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता होती है। इसीलिए उनके तर्कों की पड़ताल करके बातें साफ करना भी जरूरी है।
फिलहाल मैं स्वयं को बस्तर में नक्सल समस्या और दिग्विजय की भूमिका तक सीमित रख रहा हूं। वास्तव में छत्तीसगढ़ का जन्म ही पिछड़ेपन की पीड़ा से हुआ है। उस पिछड़ेपन को बढ़ाने में दिग्विजय सिंह की भूमिका षड्यंत्रकारी की रही है। छत्तीसगढ़ में स्थितियों की विकरालता के लिए तत्कालीन अविभक्त मध्यप्रदेश में विकास का अभाव और घोर प्रशासनिक उपेक्षा जिम्मेदार है। दिग्विजय ने छत्तीसगढ़ की सम्पदा का भरपूर दोहन किया और उसके एवज में इसे कुछ भी नहीं दिया।
दिग्विजय का सात वषरें का कार्यकाल छत्तीसगढ़ के इतिहास का ‘काल युग’ माना जाता है। दिग्विजय के शासन में यह लतीफा प्रचलित था कि मप्र का अन्य किसी राज्य से सीमा विवाद नहीं हो सकता, क्योंकि यहां की उबड़-खाबड़ सड़कें देखते ही पता चल जाता है कि मध्यप्रदेश की सीमा शुरू हो गई है। दिग्विजय मेरे अच्छे मित्र हैं, परन्तु आज तक उन्होंने मुझे यह रहस्य नहीं बताया कि कोई विकास कार्य किए बगैर वह चुनाव कैसे जीत लेते थे। उनके कुशासन का फल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ आज भी भोग रहे हैं।
बस्तर का कबाड़ा किया
दिग्विजय बस्तर के प्रभारी मंत्री भी थे, उनके राज में बस्तर को मध्यप्रदेश के ‘कालापानी’ की संज्ञा दी जाती थी। उन दिनों यह धारणा थी कि जो अधिकारी जरा भी असुविधाजनक लगता, उसे बस्तर में डम्प कर दिया जाता है। दिग्विजय सिंह ने अपने कार्यकाल में बस्तर का भरपूर कबाड़ा करते हुए उसे मध्ययुग में पहुंचा दिया।
सामाजिक और आर्थिक ढांचे की घनघोर उपेक्षा की गई। उस समय जानकारी मिलती रहती थी कि नक्सली रफ्ता-रफ्ता अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं। तब दिग्विजय सरकार तंद्रा में पड़ी रही। पुलिस व्यवस्था को मजबूत बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
उसका परिणाम बाद की सरकारों का भुगतना पड़ा है। यदि उस दौरान नक्सलियों के विरुद्घ ठोस कार्रवाई की गई होती तो जवानों की शहादतों को रोका जा सकता था। विडंबना यह है कि बस्तर में नक्सल समस्या को विकराल बनाने में सबसे अधिक जिम्मेदार व्यक्ति ही अब उसके समाधान के लिए ’विकास‘ का सुझाव दे रहे हैं।
जब वे लंबे समय तक बस्तर के कर्णधार थे तो ‘विकास’ शब्द उनके एजेण्डा में कहीं था ही नहीं। दिग्विजय द्वारा की गई बस्तर की घोर उपेक्षा के कारण नक्सलियों को वहां हिंसा के बीज बोने की उर्वरा धरती मिली और ९क् के दशक में वे वहां स्थापित हो गये। जिस दलदल में बस्तर आज धंसा हुआ है उसके जनक तो खुद दिग्विजय सिंह ही थे।
भला हो अटल बिहारी वाजपेयी का कि उन्होंने दिग्विजय के कुशासन से मुक्ति दिलाने के लिए एक नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण कराया। पहले छत्तीसगढ़ के उत्तरी, पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सों में नक्सलवाद फैल चुका था, लेकिन भाजपा सरकार ने विकास के द्वारा समाज का विश्वास जीता है और नक्सली हिंसा को राज्य के दक्षिण तक सीमित किया जा सका है।
कांवरे की हत्या के समय मुख्यमंत्री कौन था ?
दिग्विजय सिंह ने अपने लेख में कहा है कि कानून और व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी मुख्यमंत्री की होती है। यहां दिग्विजय सिंह से यह पूछना होगा कि दिसम्बर 1999 में जब बालाघाट में नक्सलियों ने मध्यप्रदेश के परिवहन मंत्री लखीराम कांवरे की नृशंस हत्या कर दी थी तो उस समय मुख्यमंत्री कौन था ?
सुना तो यह भी गया था कि दिग्विजय सिंह नक्सल प्रभावित उस क्षेत्र की यात्रा करने से कन्नी काट गये थे और बहुत प्रयासों के बाद ही उन्हें कांवरे की अंत्येष्टि में जाने के लिए मनाया जा सका। श्री कांवरे की मृत्यु के षड्यंत्र की कई कहानियां हैं, जो दिग्विजय सिंह की भूमिका पर प्रश्न चिह्न भी लगाती हैं।
दिग्विजय ने बस्तर से सांसद बलीराम कश्यप के बारे में कलुषतापूर्ण बातें कही हैं। उन्होंने ऐसे व्यक्ति पर छींटाकशी की जो ४क् वषरें से अधिक समय से विधायक, मंत्री एवं सांसद के रूप में क्षेत्र की सेवा करते रहे हैं। बलीराम कश्यप और प्रमुख कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा अपनी जान जोखिम में डालकर हमेशा नक्सलियों के विरुद्ध जूझते रहे हैं। नक्सली हमलों में दोनों नेताओं ने अपने परिवार के सदस्यों को खोया है।
नक्सलवाद के विरूद्ध अपनी इसी प्रखर प्रतिबद्वता के कारण बलीराम कश्यप को ‘बस्तर का शेर’ कहा जाता है। दिग्विजय इससे अनभिज्ञ नहीं हैं, इसलिए उनके आक्षेप अक्षम्य हैं। दिग्विजय ने यह भी लिखा है ‘सूचनाएं हैं कि प्रत्येक चुनाव में नक्सली समर्थन सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को मिलता है।’ दिग्विजय से यह पूछना होगा कि क्या अपने इस वक्तव्य के समर्थन में कोई ’दिग्विजयी‘ साक्ष्य है ?
पिछले तीन विधानसभा चुनावों के नतीजे से कुछ दिलचस्प तथ्य सामने आते हैं। 1998 में दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में लड़े गये चुनाव में बस्तर क्षेत्र की 12 में से 11 विधानसभा सीटें कांग्रेस ने जीतीं। ऐसे में1998 में और उसके पूर्व बस्तर में कांग्रेस को जो सफलता मिली उसका तिलिस्म दिग्विजय सिंह ही भेद सकते हैं। 2003 के चुनाव में पासा पलट गया और 12 में से 9 पर भाजपा को विजय मिली।
2008 के चुनाव में भाजपा ने अपनी स्थिति और सुदृढ़ करते हुए 11 सीटें जीत लीं। 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव का मैं प्रभारी था। भाजपा की शानदार विजय नक्सली हिंसा के विरुद्ध बस्तर का जनादेश था। नक्सलवाद के विरुद्ध मेरी पार्टी ने बहुत स्पष्ट सुपरिभाषित और असंदिग्ध स्टैण्ड लिया है। इन्हीं कारणों से भाजपा ने लोकसभा, नगरीय स्वायत्त संस्थाओं और पंचायत चुनावों में समूचे बस्तर से अच्छी सफलता प्राप्त की।
बस्तर की जनता का अपमान
दिग्विजय सिंह के कटाक्ष न केवल लोकतंत्र बल्कि बस्तर की जनता का भी अपमान है। गत कुछ वषरें में बस्तर में सघन विकास के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाये हैं फिर भी विकास की मुहिम और नक्सलियों के विरुद्ध संघर्ष एक अत्यन्त उलझा प्रश्न है। नक्सली विकास के सबसे बड़े शत्रु बन चुके हैं। दिल्ली में बैठे हुए दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्ति बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि पहले विकास होना चाहिए।
वे इस बात का एहसास नहीं करना चाहते कि जब तक उन क्षेत्रों पर राज्य अपना प्रभुत्व स्थापित करके उन्हें अपने नियंत्रण में नहीं ले लेता तब तक विकास किया नहीं जा सकता। नक्सलियों के विरुद्ध संघर्ष शुरू करने से पहले विकास की शर्त थोपना अव्यावहारिक है। नक्सलियों ने अस्पतालों, स्कूलों, सड़कों, पंचायतों के भवन और शासकीय अधोसंरचनाओं को नष्ट कर दिया हैं।
नक्सलवाद को नियंत्रित किए बिना विकास की बात करना अत्यन्त जटिल समस्या का अतिसरलीकरण करना है। यह नक्सलवाद की गंभीर समस्या को पूर्वाग्रही चश्मे से देखना भी है। चिंतलनार के जंगलमें जवानों की नृशंस हत्याएं भी यही जताती हैं कि नक्सलियों के विरुद्ध संपूर्ण संसाधनों का उपयोग करते हुए जूझने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। नक्सली पुलिस के मनोबल पर मर्मान्तक प्रहार करना चाहते थे। वे राजनीतिक भ्रम का निर्माण भी करना चाहते थे, जिसमें वे अंशत: सफल भी हुए।
पुलिस का मनोबल ऊंचा मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि पुलिस और अद्र्घसैनिक बलों का मनोबल अभी भी बहुत ऊंचा है। सरकार उनकी मजबूती के लिए हर संभव प्रयास करेगी। साथ ही विकास कायरें को गतिशील किया जाएगा। नक्सली हमलों में जवानों के हुए बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने दिया जा सकता। यह एक लम्बा संग्राम है और सतत संघर्ष के अलावा इसका और कोई विकल्प नहीं है।
हमें लंबे युद्घ तथा और अधिक बलिदानों के लिए तैयार रहना चाहिए। चिंतलनार से सबक लेते हुए हमें अपना अभियान जारी रखना चाहिए। फिर भी दिग्विजय सिंह जैसे व्यक्तियों और तथाकथित वामपंथियों द्वारा राजनीतिक प्रपंच बुना जाता है, वह चिंताजनक है। पी. चिदंबरम बौद्घिक अहंकारी हैं या नहीं, उस पर न जाते हुए मुझे यह कहने में रत्ती भर की भी हिचक नहीं है कि दिग्विजय सिंह ने जानबूझकर पूर्वाग्रही तथा प्रपंचक लेख लिखकर बौद्घिक बेईमानी कापरिचय दिया है, जिसमें केवल तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया है।

जहां चाहें बहस कर लें

नक्सलवाद से लड़ने की हमारी रणनीति स्पष्ट है। वक्त का तकाजा है कि न तो इसजटिल समस्या का अतिसरलीकरण किया जाए और न ही संशय उत्पन्न करने वाली प्रतिक्रियाएं उछाली जाएं। नक्सलवाद से लड़ने के लिए आवश्यकता है कि एक सुविचारित बहुआयामी और स्पष्ट रणनीति की, जिसमें पुलिस कार्रवाई तथा सामाजिक, आर्थिक विकास समाहित हों। नक्सलवाद को हमने विकास विरोधी, जनविरोधी, जघन्य हिंसक रूप में देखा है। इस बारे में दिग्विजय सिंह जब भी और जहां भी चाहें मैं उनसे बातचीत या बहस के लिए तैयार हूं।
(लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं, यह लेख मीडिया विमर्श के जून,2010 के अंक में प्रकाशित है)

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