Thursday, October 24, 2013

मीडिया विमर्श का नया अंक


भारतीय सिनेमा विकृतियों का सुपर बाजार

-संजय द्विवेदी
जब हर कोई बाजार का ‘माल’ बनने पर आमादा है तो हिंदी सिनेमा से नैतिक अपेक्षाएं पालना शायद ठीक नहीं है। अपने खुलेपन के खोखलेपन से जूझता हिंदी सिनेमा दरअसल विश्व बाजार के बहुत बड़े साम्राज्यवादी दबावों से जूझ रहा है। जाहिर है कि यह वक्त नैतिक आख्यानों, संस्कृति और परंपरा की दुहाई देने का नहीं है। हिंदी सिनेमा अब आदर्शों के तनाव नहीं पालना चाहिता । वह अब सिर्फ विश्व बाजार का सांस्कृतिक एजेंट है। उसके ऊपर अब सिर्फ बाजार के नियम लागू होते हैं।मांग और आपूर्ति के इस सिद्धांत पर वह खरा उतरने को बेताब है। कला सिनेमा को निगलने के बादः यह अकारण नहीं है कि कला सिनेमा की एक पूरी की पूरी धारा को यह बाजार निगल गया। कला या समानांतर सिनेमा से जुड़ा जागरुक तबका भी अब इसी बाजार की ताल से ताल मिलाकर ‘माल’ बनाने में लगा है। ऐसे में सिनेमा के सामाजिक उत्तरदायित्व और उसके सरोकारों पर बातचीत बहुत जरूरी हो जाती है। ऐसे में समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले इस माध्यम का विचलन और उसके संदेशों को लेकर लंबी बहसें चलती रही हैं, लेकिन अब इसका दौर भी थम गया है। शायद इस सबने यह मान लिया है कि इस माध्यम से जन अपेक्षाएं पालना ही अनैतिक है। सिनेमा बनाने वाले भी यह कहकर हर प्रश्न का अंत कर देते हैं कि ‘हम वहीं दिखते हैं जो समाज में घट रहा है।’ लेकिन यह बयान सत्य के कितना करीब है, सब जानते हैं। सच कहें तो आज का सिनेमा समाज में चल रही हलचलों का वास्तविक आईना कभी प्रस्तुत नहीं करता । वह उसे या तो अंतिरंजित करता है या चीजों को अतिसरलीकृत करके पेश करता है। 47 के पहले या 60 के दशक में दर्शक अपने नैतिक मूल्यों के लिए हीरो को लड़ते और बुरी ताकतों पर विजय प्राप्त करते हुए देखते थे। प्रेम और नैतिक आदर्श के लिए लड़ने वाला हीरो समाज में स्वीकारा जाता था। नेहरू युग के बाद लोगों की टूटती आस्था, आजादी के सपनों से छल की भावना बलवती हुई तो मुख्यधारा का सिनेमा अभिताभ बच्चन के रुप में एक में एक ऐसी ‘व्यक्तिगत सत्ता’ के स्थापना का गवाह बना जो अपने बल और दुस्साहस सेल लोगों की लड़ाई लड़ता है। कहां खो गया नायकः आज का सिनेमा जहां पहुंचा है, वहां नायक-खलनायक और जोकर का अंतर ही समाप्त हो गया है। इसके बीच में चले कला फिल्मों के आंदोलन को उनका ‘सच’ और उनकी ‘वस्तुनिष्ठ प्रस्तुति’ ही खा गई । यहां यह तथ्य उभरकर सामने आया कि ‘बाजार में झूठ ही बिक सकता है, सच नहीं’। इस एक सत्य की स्थापना ने हिंदी सिनेमा के मूल्य ही बदल दिए। दस्तक, अंकुर, मंथन, मोहन जोशी हाजिर हो, चक्र, अर्धसत्य, पार, आधारशिला, दामुल, अंकुश, धारावी जैसी फिल्में देने वाली धारा ही कहीं लुप्त हो गई। एक सामाजिक माध्यम के रूप में सिनेमा के इस्तेमाल की जिनमें समझ थी वे भी मुख्यधारा के साथ बहने लगे। यहां यह बात भी काबिले गौर है कि कला फिल्मों ने अपने सीमित दौर में भी अपनी सीमाओं के बावजूद व्यावसायिक सिनेमा की झूठी और मक्कार दुनिया की पोल खोल दी। यह सही बात है कि आज सिनेमा का माध्यम अपनी तकनीकगत श्रेष्ठताओं, प्रयोगों के चलते एक बेहद खर्चीला माध्यम बन गया है। ऐसे में सेक्स, हिंसा उनके अतिरिक्त हथियार बन गए हैं। पुराने जमाने में भी वी. शांताराम से लेकर गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास ने व्यावसायिक सिनेमा में सार्थक हस्तक्षेप किया, लेकिन आज का सिने-उद्योग सिर्फ मुनाफाखोरी तक ही सीमित नहीं है, उसके इरादे खतरनाक हैं। काले धन की माया, काले लोग इस बाजार को नियंत्रित कर रहे हैं। आज के मुख्यधारा का सिनेमा ‘समाज के लिए’ नहीं ‘बाजार के लिए’ है। देशभक्ति, प्रेम, सामाजिक सरोकार सब कुछ यदि बेचने के काम आए तो ठीक वरना दरकिनार कर दिये जाते हैं। नकली इच्छाएं जगाने, मायालोक में घूमते इस सिनेमा का अपने आसपास के परिवेश से कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए आज उसके पास कोई ‘नायक’ नहीं बचा है। पहले एकांत में नाचते नायक-नायिका इसलिए अब भीड़ में नाचते हैं । शोर का संगीत और शब्दों का अकाल इस सिनेमा की दयनीयता का बखान करते हैं । सच कहें तो भारतीय जीवन का अनिवार्य हिस्सा बने होने के बावजूद सिनेमा पर जनता का कोई बौद्धिक अंकुश नहीं रह गया है । परिणाम यह हुआ है कि हिंदी सिनेमा पागल हाथी की तरह व्यवहार कर रहा है। मनोविकारी फिल्मों का समयः हिंदी सिनेमा तो वैसे ही हॉलीवुड की जूठन उठाने और खाने के लिए मशहूर है। इसीलिए प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ मनोविकारी प्रेम की फिल्में भी बालीवुड में खूब बनीं । एक दौर में शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम की फिल्मों के महानायक बन गए । सही अर्थों में मनोविकारों से ग्रस्त प्रेमी को पहली बार बालीवुड में शाहरूख खान ने ‘ग्लैमराइज्ड’ किया । फिल्म ‘बाजीगर’ से प्रेम में हिंसा व उन्माद के जिस दौर की शुरूआत हुई, ‘डर’ और ‘अंजाम’ में उसे और विस्तार मिला । फिल्म ‘बाजीगर’ में शिल्पा शेट्टी के प्रेम में दीवाना शाहरूख खान छत से धकेल कर उसकी हत्या कर देता है। ‘डर’ में जूही की दीवानगी में वह इस कदर पागल है कि वह जूही के पति सन्नी देओल की जान से पीछे पड़ जाता है। ‘अंजाम’ में शाहरूख, शादीशुदा माधुरी दीक्षित की चाहत में उसके पति की हत्या कर डालता है। इस ‘शाहरूख लहर’ की सवारी नाना पाटेकर भी ‘अग्निसाक्षी’ में करते नजर आते हैं। इस फिल्म में नाना पाटेकर ‘स्लीपिंग विद द एनमी’ के नायक सरीखा पति साबित होते हैं। पूरी फिल्म एक ऐसे सनकी इंसान की कथा है, जो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी किसी और से बात भी करे । दीवानगी की इस हिंसक हद से आतंकित उसकी पत्नी कहती है ‘वह मुझे इतना प्यार करता है कि मुझको छूकर गुजरने वाली हवा से भी नफरत करने लगा है। ‘नाना इस फिल्म में मुहब्बत के तानाशाह के रूप में नजर आते हैं। इसके बावजूद ये फिल्में सफल रहीं। बदलते जीवन मूल्यों की बानगी पेश करती ये फिल्म एक नए विषय से साक्षात्कार कराती हैं। प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आस्था दिखाने वाला समाज एक हिंसक एवं क्रूर प्रेमी को सिर क्यों चढ़ाने लगा है, यह सवाल वस्तुतः एक बड़े समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय थोड़े अलग जरूर है, लेकिन वह भी प्रेम के विकृत रूप का ही परिचय कराती है। प्रेम के चित्रण का इतिहासः आप हिंदी सिनेमा के 100 सालों का मूल्यांकन करें तो वह मूलतः प्रेम के चित्रण का इतिहास है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ दरअसल यौन सम्बन्धों की उन्मुक्ति एवं वर्जनाओं का भी रूप बदलता रहा है। सिनेमा की संपूर्ण यात्रा में प्रेम संबंधों की व्याख्या का दौर सबसे महत्वपूर्ण है। हिंदुस्तानी लोक चेतना में प्रेम के इस तत्व की जगह वैसे भी बहुत बड़ी है। दूसरे यौन संबंधों पर खुली बहस की कम गुंजाइश के कारण हम इसके अक्स एवं विकल्प परदे पर तलाशते रहे । दमित इच्छाओं एवं यौन कुंठाओं के इसी संदर्भ की समझ ने हिंदी सिनेमा व्यवसायियों को एक बेहतर मसाला दिया। गीत संगीत एवं प्रेम की इस चेतना का व्यवसाय फिल्म उद्योग की प्राथमिकता बन गई। इस सबके बावजूद हिंसा से लबरेज यह प्रेम, भारतीय दर्शकों के लिए बहुत अजनबी न था। हिंसाचार की शुरुआत और अंत अपने प्रेम को पाने या अनाचार से मुक्ति के लिए होती थी। पर प्रेम के आयातित संस्करण में अब अपनी मुहब्बत का ही गला घोंटने की तैयारियों पर जोर है। हिंसा प्रेम’का यह दौर वास्तव में भारतीय सिने जगत की रेखांकित की जाने लायक परिघटना है, जो कहीं से भी प्रेम के परंपरागत चरित्र से मेंल नहीं खाती । हिंसा भारतीय सिनेमा की जानी पहचानी चीज है, पर नायक आम तौर पर खलनायक के अनाचार से मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा लेता दिखता था। उसकी प्रमिका का ही उसके द्वारा उत्पीड़न, यह नया दौर है। जाहिर है समाज में ऐसी घटनाएं घट रही थीं और उनकी छाया रूपहले पर्दे पर भी दिखी। इस प्रकार की घटनाओं ने पर्दे पर भी ‘हिंसक प्रेम’ की ‘थ्यौरी’ को जगह दी। पलायनवादी नायकः शाहरूख खान की फिल्में इसी ‘थ्यौरी’ का संदर्भ मानी जा सकती हैं। वह चुनौती को स्वीकारता नहीं, भागता है। मध्य वर्ग के नौजवान की चेतना एवं उसकी कुंठाओं का शाहरूख सच्चा प्रतिनिधि नजर आता है। वह प्यार करता है, किंतु स्वीकार का साहस उसमें नहीं हैं । उसे श्रम, रचनाशीलता एवं इंतजार नहीं है। सो वह पागलों सी हरकतें करता है, जिसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी शामिल है। इस प्रसंग पर मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी की राय गौरतलब है। वे लिखते है- ‘वह हमेशा लड़ता भिड़ता नजर आता है। किसी लड़की से छेड़छाड़ से लेकर मारपीट तक ‘हिंसक’ और ‘देह’ के रिश्ते बनाना ही उसका लक्ष्य है। उसके गीतों में भी सौंदर्य व कमनीयता के प्रतीक तलाशे नहीं मिलते। वह ‘इंस्टेटिज्म’ (तुरंतवाद) का शिकार है। उसे जो भी कुछ चाहिए तुरंत चाहिए। इंस्टेट। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में उसे समाप्त कर देने की आकांक्षा उसके इसी पागलपन से उपजी है। आप इसे पूरे चित्र को पढ़ने की कोशिश करें तो यह भारतीय काव्य के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें लडके और लड़की के बीच कहीं प्यार या सामाजिक संबंध नहीं। ‘पचौरी आगे लिखते ’ शुद्ध रुप में ‘फिजिकल’ रिश्ते पल रहे हैं। इसे हम फिल्मों के ‘डांस सिक्वेंस’ से देख समझ सकते हैं नौजवान का 2 कैरेट खरा ‘फिजिकल रूप ।’ यहां नायक और नायिका सिर्फ ‘शरीर’ हैं। एक ऐसा शरीर, जिसमें मन, आत्मा, भावना, सुख व दुख सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। वह सिर्फ ‘शरीर’ बनकर रह गया है। उसे खोज भी प्रेम के प्रतीक नहीं मिलते। इसीलिए गीतों में भी वह प्रेम की प्रतीक नहीं खोज पाता। एक गीत में नायक कहता है ‘खंभे जैसी खड़ी है,/ लड़की है या छड़ी है।’ जाहिर है कोमल अनूभूतियों को व्यक्त करने वाले शब्दों व प्रतीकों के भी लाले हैं। समाज में घट रही घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार इस संवेदनहीनता पर मुहर भी लगाती हैं। सिर्फ ‘शरीर’ ही बचा है, जिसमें से मन, आत्मा, भावना, सुखदुख, हर्ष-विषाद आदि सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। अपने अहंकार पर चोट आज के युवा को आहत करती है। वह घर, परिवार, समाज की बनी बनाई लीक को एक झटके में तोड़ डालने पर आमादा है। साहिर लुधियानवी की कुछ पंक्तियां इस संदर्भ को समझने में सहायक हो सकती हैं ‘तुम अगर मुझको न चाहो तो / कोई बात नहीं,/ तुम किसी और को चाहोगी/तो मुश्किल होगी।’ साहिर की ये पंक्तियां इस घातक चाहत का बयान करती हैं। जहां प्रेम की प्राप्ति न होने पर उसे नष्ट कर डालने का संदेश फिल्मों में दिखता है। उपभोक्तावाद के ताजा दौर में भोगवादी संस्कृति के थपेड़ों में हमारा दार्शनिक आधार चरमरा गया है। इसी के चलते फिल्मों ने ऐसे नकारात्मक मूल्यों को सिर चढ़ाया है। पैसे की सनक और नवधनाढ्यों के उभार के बीच ये फिल्मी कथाएं वस्तुतः हमारे समाज के सच की गवाही हैं। समाचार पत्रों में आए दिन प्रेमी द्वारा प्रेमिका की हत्या, पत्नी की हत्या या पति की हत्या जैसे समाचार छपते हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और दूरदर्शन इस नकारात्मक प्रवृत्ति को एक आधार प्रदान करते हैं। फिल्मों की कथाएं देखकर छोटे कस्बे गांवों के नौजवान उससे गलत प्रेरणा ग्रहण करते हैं। कई बार वे पर्दे पर दिखाई घटना को जीवन में दोहराने की कोशिश करते हैं। निश्चित रूप से ताजा बाजारवादी अवधारणाओं में हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभावों से तेजी से ग्रस्त हो रहा है। पश्चिमी जीवन की ज्यों की त्यों स्वीकार्यता हमारे समाज में संकट का सबब बनेगी। प्रेम के एक क्रूर चेहरे को भारतीय मन पर आरोपित करने की कोशिशें तेज हैं। दुर्भाग्य है कि यह सारा कुछ प्रेम के नाम पर हो रहा है। सिनेमा पर गैरहाजिर विमर्शः किसी भी समाज में बौद्धिक और सांस्कृतिक अंकुश रखने का काम लेखक और विचारक ही करते हैं, कोई सरकार नहीं। फिल्मों पर हिंदी पत्रकारिता और टी. वी. चेनलों पर भी चल रही चर्चाएं एवं उन पर आधारित कार्यक्रम भी सतही और बचकाने होते हैं । हिंदी सिनेमा ने सही अर्थों में भारतीय समाज एवं उसके संघर्षों, उसकी चेतना को अपनी ही जमीन से बदखल कर दिया है। उसकी ताकत लगातार बढ़ी है, वह हमारा लोकाक्षर और दैन्दिन का व्यवहार तय करने लगा है। इतनी सशक्त माध्यम पर समूचे हिंदी क्षेत्र में ठोस विचार की शुरुआत के बजाए ‘गाशिप बाजी’ चल रही है। सिनेमा पर लगभग गैरहाजिर विमर्श को चर्चा के केंद्र में लाना और उस पर बौद्धिक-सामाजिक अंकुश लगाना समय की जरूरत है। 1939 में हिंदी के यशस्वी कथाकार-उपन्यासकार प्रेमचंद ने लिखा था ‘मगर खेद है कि इसे कोरा व्यवसाय बनाकर हमने उसे कला के उच्च आसन से खींचकर ताड़ी की दूकान तक पहुंचा दिया है’। यह बात प्रेमचंद के दौर की है, जब देश के लोग आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और आज तो हिंदी सिनेमा विकृतियों का ‘सुपर बाजार’ बन गया है। ऐसे ही चित्रों पर हमारी नई पीढ़ी और बचपन झूम-झूम कर जवान हो रहा है। क्या हम समाज के इतने प्रभावकारी माध्यम को, यूं ही बेलगाम छोड़ दें ? (लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Tuesday, October 22, 2013

बाजार की मार से बेजार हैं किताबें

-संजय द्विवेदी बाजार की मार और प्रहार इतने गहरे हैं कि किताबें दम तोड़ने को मजबूर है। इलेक्ट्रानिक मीडिया का गहराता नशा, उपभोक्तावादी ताकतों के खेल तथा पाठकों के संकट से जूझतीं ‘किताबें’ जिएं तो जिए कैसे ? इस दमघोंटू माहौल में क्या किताबें सिर्फ पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह जाएगी या मीडिया के नए प्रयोग उसकी उपयोगिता ही समाप्त कर देंगे, यह सवाल अब गहरा रहा है। अरसा पहले ईश्वर की मौत की घोषणा के बाद उपजे विमर्शों में नई दुनिया के विद्वानों ने इतिहास, विचारधारा, राजनीति, संगीत, किताबें, रंगमंच एक-एक कर सबकी मौत की घोषणा कर दी। यह सिलसिला रुकता इसके पूर्व ही सुधीश पचौरी ने ‘कविता की मौत’ की घोषणा कर दी। यह सिलसिला कहां रुकेगा कहा नहीं जा सकता । और अब बात किताबों के मौत की। हमने देखा कि मृत्यु की घोषणाओं के बावजूद ये सारी चीजें अपनी-अपनी जगह ज्यादा मजबूती से स्थापित हुईं और आदमी की जिंदगी में ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी जगह बना ले गयीं। किताबों की मौत का सवाल इस सबसे थोड़ा अलग है, क्योंकि उसके सामने चुनौतियां आज किसी भी समय से ज्यादा हैं। शोर है कि किताबों के दिन लद गए। किताबों के ये आखिरी दिन हैं। किताब तो बीते जमाने की चीज है। शोर में थोड़ा सच भी है, उनकी पाठकीयता प्रभावित जरूर हुई, स्वीकार्यता भी घटी । इसके बावजूद वह मरने को तैयार नहीं है। जिन देशों में आज इलेक्ट्रानिक माध्यमों के 600 से ज्यादा चैनल है, 10 में से 6 लोगों के पास इंटरनेट कनेक्शन हैं, वहां भी किताबें किसी न किसी रूप में क्यों आ रही है ? वे कौन से सामाजिक, आर्थिक दबाव हैं, जो किताब और पाठक की रिश्तेदारी के अर्थ और आयाम बदलने पर आमादा हैं। खासकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में किताबों की जैसी दुर्गति है, उसके कारण क्या हैं ? इलेक्ट्रानिक मीडिया एवं सूचना आधारित वेबसाइटों के भयावह प्रसार वाले देशों में किताबें अगर उसकी चुनौती को स्वीकार कर अपनी जमीन मजबूत बना पाई हैं जो भारतीय संदर्भ में यह चित्र इतना विकृत क्यों हैं ? निश्चय ही हिंदी क्षेत्र के लिए यह चुनौती सहज नहीं खासी विकट है। इसे हल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता । किताब लिखने और छापने वालों सबके लिए यह समय महत्व का है, जब उन्हें ऐसी सामग्री पाठकों को देनी होगी, जो उन्हें अन्य मीडिया नहीं दे पाएगा। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने वैसे भी जैसी छिछली, सस्ती और सतही सूचनाओं का जखीरा अपने दर्शकों पर उड़ला है, उसमें ‘किताब’ के बचे रहने की उम्मीदें ज्यादा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में गंभीरता के अभाव के चलते किताबों को गंभीरता पर ध्यान देना होगा वरना हल्केपन का परिणाम वही होगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया पर हिंदी फिल्मों पर आधारित कार्यक्रमों की लोकप्रियाता तो बढ़ी, किंतु हिंदी की कई फिल्म पत्रिकाएं लड़खड़ा कर बंद हो गई। इसके बावजूद किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में बाहर से हालात इतने बुरे नजर नहीं आते। हिंदी में किताबें खूब छप रही हैं। प्रकाशकों की भी संख्या बढ़ी है। फिर पाठकीयता के संकट तथा किताबों की मौत की चर्चाएं आखिर क्यों चलाई जा रही हैं ? सवाल का उत्तर तलाशें तो पता चलेगा कि हमारे प्रकाशकों को हिंदी साहित्य से खासा प्रेम है। इसके चलते ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर पुस्तकों का खासा अभाव है। सिर्फ साहित्य की पुस्तकों के प्रकाशन के चलते हिंदी में मनोरंजन, पर्यटन, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कला, संस्कृति जैसे विषयों पर किताबों बहुत कम मिल पाती हैं। हां। अध्यात्म की किताबों का प्रकाशन जरूर बड़ी मात्रा में होता है, हालांकि उसके बिक्री एवं प्रकाशन का गणित सर्वथा अलग है। हिंदी प्रकाशकों के साहित्य प्रेम के विपरीत अंग्रेजी किताबों के प्रकाशन बमुश्किल 10 प्रतिशत किताबें ही ‘साहित्य’ पर छापते हैं। इसके चलते विविध रुचियों से जुड़े पाठक अंग्रेजी पुस्तकों की शरण में जाते हैं। बाजार की इसी समझ ने ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर अंग्रेजी का रुतबा कायम रखा है। राज्याश्रय में पलता प्रकाशन उद्योगः हिंदी प्रकाशन उद्योग की सबसे बड़ी समस्या उसका जनता से कटा होना है। सूचनाओं के महासमुद्र में गोते लगाने एवं अच्छी कृतियों को समाने लाने से वे बचना चाहते हैं। सरकारी खरीद एवं पाठयक्रमों के लिए किताबें छापना प्रकाशकों का प्रमुख ध्येय बन गया है। सरकारी खरीद होने में होने वाली कमीशनबाजी के चलते किताबों के दाम महंगे रखे जाते हैं। 50 रुपए की लागत की कोई भी किताब छापकर प्रकाशक उसे 75 रुपए में बेचकर भी लाभ कम सकता है, पर यहां कोई गुना खाने की होड़ में, कमीशन की प्रतिस्पर्धा में 50 रुपए की किताब की कीमत 200 रुपए तक पहुंच जाती है। फिर साहित्य के इतर विषयों पर हिंदी पाठकों को किताबें कौन पहुंचेगा ? अनुवाद के माध्यम से बेहतर किताबें लोगों तक पहुंच सकती हैं, लेकिन इस ओर जोर कम है, प्रायः प्रकाशक किसी किताब के एक संस्करण की हजार प्रतियां छापकर औन-पौने बेचकर लाभ कमाकर बैठ जाते हैं। उन्हें न तो लेखकर को रायल्टी देने की चिंता है, न ही किताब के व्यापक प्रसार की। सरकारी खरीद और पुस्तकालयों में पांच सौ हजार प्रतियां ही उन्हें लागत एवं मुनाफा दोनों दे जाती हैं। इससे ज्यादा कमाने की न तो हमारे प्रकाशकों की इच्छा है, न ललक। प्रकाशकों का यह ‘संतोषवाद’ लेखक एवं पाठक दोनों के लिए खतरनाक है। प्रकाशक प्रायः यह तर्क देते हैं कि हिंदी में पाठक कहां है ?वास्तव में यहा तर्क भोथरा एवं आधारहीन है। मराठी में लिखे गए उपन्यास ‘मृत्युंजय’ (शिवाजी सावंत) के अनुवाद की बिक्री ने रिकार्ड तोड़े । प्रेमचंद, बंगला के शरदचंद्र, देवकीनंदन खत्री, हाल में सुरेन्द्र वर्मा की ‘मुझे चांद चाहिए’ ने बिक्री के रिकार्ड बनाए। विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रारंभ किए गए पेपरबैक सस्करणों को मिली लोकप्रियता यह बताती है कि हंदी क्षेत्र में लोग पढ़ना चाहते हैं, पर कमीशनबाजी और राज्याश्रय के रोग ने पूरे प्रकाशन उद्योग को जड़ बना दिया है। पाठकों तक विविध विषयों की पुस्तकें पहुंचाने की चुनौती से भागता प्रकाशन उद्योग न तो नए बाजार तलाशना चाहता है, न ही बदलती दुनिया के मद्देनजर उसकी कोई तैयारी दिखती है। प्रायः लेखकों की रायल्टी खाकर डकार भीन लेने वाला प्रकाशन उद्योग यदि इतने बड़े हिंदी क्षेत्र में पाठकों का ‘टोटा’ बताता है तो यह आश्चर्यनजक ही है। पाठक और किताब का रिश्ताः पाठक और किताब का रिश्तों पर नजर डाले तो वह काफी कुछ बदल चुका है। प्रिंट मीडिया पर इलेक्ट्रानिक माध्यमों से लेकर तमाम सूचना आधारित वेबसाइटों के हमले और सामाजिक-आर्थिक दबावों ने किताबों और आदमी के रिश्ते बहुत बदल दिए हैं। किताबों ने तय तक कर लिया है कि व महानगरों में ही रहेंगी, जबकि हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती है। किताब पढ़ने का उनका संस्कार नहीं है, यह मान लेना भी गलत होगा बरना रामचरित मानस, पंचतंत्र, चंद्रकांता संतति जैसा साहित्य गांवों तक न पहुंचता। शायद किताबों का इस संकट में कोई कुसूर नहीं है। दुनिया के महानगरीय विकास ने हमारी सोच, समझ और चिंतन को भी ‘महानगरीय’ बना दिया है। वैश्वीकरण की हवा ने हमें ‘विश्व नागरिक’ बना दिया। ऐसे में बेचारी किताबें क्या करें ? बड़े शहरों तक उनकी पहुच है। परिणाम यह है कि वे (किताबें) विश्वविद्यालयों महाविद्यालयों के पुस्तकालयों की शोभ बढ़ा रही हैं। ज्यादा सुविधाएं मिलीं तो सरकारी या औद्योगिक प्रतिष्ठानों के राजभाषा विभागों, पुस्तकालयों में वे सजी पड़ी हैं। पुस्तक मेंलों जैसे आयोजन भी राजधानियों के नीचे उतरने को तैयार नहीं है। जाहिर है आम आदमी इन किताबों तक लपककर भी नहीं पहुच सकता। - अध्यक्षः जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)