Sunday, June 20, 2010

अतिवादी लाल दलाल और वाम मीडिया से पिटता आवाम


जयराम दास

बुद्धत्व से पहले:- एक थी सुजाता। संस्कारों में पली-बढ़ी राजकुमारी। वनदेवता का पूजा करना और उन्हें पत्र पुष्पाजंलि के साथ प्रसाद समर्पित करना उसका दैनिक कार्य था। अपने इसी कार्य के सिलसिले में वो सारी पूजा सामग्री के साथ वन देवता के समर्पण को पहुंची. वहां देखती है कि एक युवक निस्तेज सा पड़ा अंतिम सांसें गिन रहा है. तन पर नाम मात्र को वस्त्र, पेट और पीठ एकाकार. बिना देर किये सुजाता ने उस युवक का परिचार करना शुरू कर दिया. अपने साथ लाये जल से उन्हें होश में लाकर वनदेवता के लिए लाये भोजन सामग्री से उसकी क्षुधातृष्टि की. बाद में पता चला कि उस युवक का नाम सिद्घार्थ है, जो महलों का राज-वैभव ठुकरा अपनी पत्नी यशोधरा को छोड़ बुद्घत्व की तलाश में निकला है. अपने साधना को कठोरतम बनाकर आज इस हालत में पहुंच गया है कि शायद कुछ देर में इसके प्राण पखेरू उड़ जाते.

तो बुद्घत्व से भी पहले सिद्घार्थ को यह ज्ञान मिला कि चाहे तपस्या ही क्यूँ ना हो, अति सर्वथा त्याज्य है. फिर उनका बुद्घत्व और मध्यमार्ग इस तरह एकाकार हो गया कि उसका अवलंबन कर संपूर्ण एशिया ज्ञान के प्रकाश से आलोकित है. इसी विचार को एक सिद्घांत का रूप दिया बुद्घ ने और अपने शिष्य आनंद को बताया कि वीणा की तार को इतना मत कसो कि वो टूट जाये, और इतना ढीला मत छोड़ो कि उससे राग ही न निकले. आशय यह कि किसी भी तरह का अतिवाद बुराई या विनाश का पहला सोपान है. हर तरह के मीमांसक चाहे वो किसी भी देश काल परिस्थिति में हो, अति को बुरा ही मानते आये हैं.एक संस्कृत श्लोक है अति दानी बलि राजा, अति गर्वेण रावण, अति सुंदरी सीता, अति सर्वत्र वर्जयेत, अंग्रेजी में भी कहा गया है एकसिस एवरीथिंग इज बैड. तो इस उद्धरण के बहाने मीडिया द्वारा अतिवादी तत्वों को दिए जा रहे प्रश्रय पर भी गौर फरमाना समीचीन होगा.
मीडिया और अतिवाद-
किसी भी तरह के अतिवाद और मीडिया पर विमर्श मुख्यतया दो बिन्दु पर की जा सकती है। पहला संप्रेषण माध्यमों के स्वयं के द्वारा फैलाया गया अतिवाद और दूसरा अतिवादी, उग्रवादी तत्वों को मंच प्रदान करना, उन्हें समर्थन देना। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद और उसके विरूद्घ चलने वाले अभियान में मीडिया की भूमिका एक ऐसा उदाहरण है जिसमें आपको दोनों तरह के अतिवाद से एक साथ परिचय होगा. आप ताज्जुब करेंगे कि देश में ऐसे भी अभागे-अभागियां हैं जो खुलेआम नक्सली प्रवक्ता बन लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न इस सबसे बड़ी चुनौती का औचित्य निरूपण के लिए अपना मंच प्रदान करता है. इस संभंध में एक विवादास्पद लेखिका के लिखे लंबे-लंबे आलेख को प्रकाशित-प्रसारित प्रकाशित करना निश्चय ही उचित नहीं है. जिन नक्सलियों ने वनवासियों का जीना हराम कर रखा हो, जहाँ युद्घ की स्थिति हो. जहां सरकार ने जनसुरक्षा कानून लगाकर नक्सली संगठन को प्रतिबंधित करने के अलावा आतंकी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार भी संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया हो, वहां बावजूद उसके आम जनमानस को किंकर्तव्यविमूढ़ हो झेलना पड़े नक्सलियों के महिमामंडल को, आखिर क्या कहा जाय इसे?
आप सोंचे, प्रचार की यह कैसी भूख? उच्छृंखलता की कैसी हद? लोकतंत्र के साथ यह कैसी बदतमीजी? बाजारूपन की यह कैसी मजबूरी जो अपने ही बाप-दादाओं के खून से लाल हुए हाथ को मंच प्रदान कर रहा है. दुखद यह कि ऐसा सब कुछ “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” के संवैधानिक अधिकार की आड़ में हो रहा है. अफ़सोस यह है कि जिन विचारों के द्वारा मानव को सभ्यतम बनाने का प्रयास किया गया था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, धर्मनिर्पेक्षता, समानता, सांप्रदायिक सद्भाव आदि शब्दों का ही दुरूपयोग कर आज का मीडिया विशेष ने इस तरह के उग्रवाद को प्रोत्साहित कर समाज की नाक में दम कर रखा है. यूँ तो राष्ट्रीय कहे जाने वाले माध्यमों के इस तरह के दर्जनों हरकतों का जिक्र कर इस तरह के अतिवाद की चर्चा की जा सकती है. परंतु नक्सलवाद के माध्यम से ही विमर्श करना इसलिए ज़रूरी है कि देश के सार्वाधिक उपेक्षित बस्तर में चल रहे इस कुकृत्य पर आजतक किसी भी बाहरी मीडिया ने तवज्जो देना उचित नहीं समझा. अभी हाल ही में 76 जवानों की शहादत के बावजूद सानिया-शोएब प्रकरण ही महत्वपूर्ण दिखा इन दुकानदारों को. कुछ मीडिया ने ज्यादा तवज्जो दी भी तो नक्सलियों के प्रचारक समूहों, वामपंथियों द्वारा पहनाये गये लाल चश्मों से देखकर ही.खास कर सबसे ज्यादा इस सन्दर्भ में अरुंधती राय द्वारा इस हमलों की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले आलेख की ही चर्चा हुई. तो सापेक्ष भाव से एक बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विमर्श और उसका विश्लेषण आवश्यक है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम माध्यमों की उच्छृंखलता
यह सच है कि मानव सभ्यता की शुरूआत से लेकर वर्तमान तक अभिव्यक्ति से सुंदर चीज आज तक नहीं हुई. ‘अभिव्यक्ति’ ही वह अधिकार है जो आपको ‘व्यक्ति’ बनाता है. यही आपको बेजूबानों से अलग भी करता है. इस स्वतंत्रता का सम्यक उपयोग ही किसी समाज के सभ्य होने की निशानी है, इसमें भी दो राय नहीं. भारतीय साहित्य में भी इसका बहुत सुंदर उदाहरण देखने को मिलता है. रामायण में सीता को हनुमान, भगवान राम का संदेश सुनाते हुए करहते हैं :-कहेहु ते कछु दुःख घटि होई, काह कहौं यह जान न कोई…. यानि तुमसे बिछडऩे का जो दुख है, वह कह देने से कुछ कम अवश्य हो जायेगा, लेकिन किसको कहूं? मानस का यह चौपाई ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्याख्या करने हेतु काफी है. जब रहीम कहते हैं कि ‘‘निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय’’ तो यह कहीं से भी तुलसी के कहे का विरोधाभास नहीं है. मतलब यह कि या तो आप अपनी अभिव्यक्तियों को कुछ मर्यादाओं के अधीन रखें अथवा चुप ही रहना बेहतर. किसी ने कहा है कि “कह देने से दुख आधा हो जाता है और सह लेने से पूरा खत्म हो जाता है”. अगर पत्रकारीय प्रशिक्षण की भाषा का इस्तेमाल करूँ तो आपकी अभिव्यक्ति भी क्या,क्यूं, कैसे, किस तरह, किसको, किस लिए इस 6 ककार के अधीन ही होनी चाहिए. इस मर्यादा से रहित बयान, भाषण या लेखन ही अतिवादिता की श्रेणी में आता है.
भारतीय संविधान ने उपरोक्त वर्णित इसी सांस्कृतिक आत्मा का इस्तेमाल कर हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है. मीडिया को इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दो खास चीज का ध्यान रखना चाहिए. जिसका अंजाने या जानबूझकर उपेक्षा की जाती है. अव्वल तो यह कि अनुच्छेद 19 (1) ‘‘क’’ किसी प्रेस के लिए नहीं है. यह आम नागरिक को मिली स्वतंत्रता है और इसका उपयोग मीडिया को एक आम सामान्य नागरिक बनकर ही करना चाहिए और उसके हरेक कृत्य को आम नागरिक का तंत्र यानि लोकतंत्र के प्रति ही जिम्मेदार होना चाहिए. लोकतंत्र, लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति सम्मान, चुने हुए प्रतिनिधि के साथ तमीज से पेश आना भी इसकी शर्त होनी चाहिए. जैसा छत्तीसगढ़ का ही एक अखबार बार-बार एक चुने हुए मुख्यमंत्री को तो ‘‘जल्लाद’’ और ‘‘ऐसा राक्षस जो मरता भी नहीं है’’ संबोधन देता था और ठीक उसी समय नक्सल प्रवक्ता तक सलाम पहुंचाकर उसे जीते जी आदरांजलि प्रदान करता था. इस तरह की बेजा हरकतों से बचकर ही आप एक आम नागरिक की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सेदार हो सकते हैं. साथ ही राज्य की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि यदि स्व अनुशासन नहीं लागू कर पाये ऐसा कोई मीडिया समूह तो उसे सभ्य बनाने के लिए संवैधानिक उपचार करें. यदि परिस्थिति विशेष में बनाये गये कानून को छोड़ भी दिया जाए तो भी संविधान ही राज्य को ऐसा अधिकार प्रदान करती है कि वह उच्छृंखल आदतों के गुलामों को दंड द्वारा भी वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र करे. उन्हें यह ध्यान दिलाये कि विभिन्न शर्तों के अधीन दी गई यह महान स्वतंत्रता आपके बड़बोलापन के लिए नहीं है, यह आपकी इच्छा का मुहताज नहीं है। जबरदस्ती ही सही, आपको इसे आत्मार्पित करना ही होगा.
आपको उसी अनुच्छेद (19) ‘‘2’’ से मुंह मोडऩे नहीं दिया जाएगा कि आप “राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, शिष्टïचार और सदाचार के खिलाफ” कुछ लिखें या बोलें. आप किसी का मानहानि करें , भारत की अखंडता या संप्रभुता को नुकसान पहुंचायें. ‘‘बिहार बनाम शैलबाला देवी’’ मामले में न्यायालय का स्पष्ट मत था कि ‘‘ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति या ऐसे भाषण देना जो लोगों को हत्या जैसे अपराध करने के लिए उकसाने या प्रोत्साहन देने वाले हों, अनुच्छेद 19 (2) के अधीन प्रतिबंध लगाये जाने के युक्तियुक्त आधार होंगे।’’ न केवल प्रतिबंध लगाने के वरन ‘‘संतोष सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन’’ मामले में न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि ‘‘ऐसे प्रत्येक भाषण को जिसमें राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देने की प्रवृत्ति हो, दंडनीय बनाया जा सकता है.’’ आशय यह कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ढोल पीटते समय आप उसपर लगायी गयी मर्यादा को अनदेखा करने का अमर्यादित आचरण नहीं कर सकते. इसके अलावा आपकी अभिव्यक्ति, दंड प्रक्रिया की धारा ‘499’ से भी बंधा हुआ है और प्रेस भी इससे बाहर नहीं है. प्रिंटर्स मैसूर बनाम असिस्टैण्ट कमिश्नर मामले में स्पष्ट कहा गया है कि प्रेस भी इस मानहानि कानून से बंधा हुआ है. इसके अलावा संविधान के 16 वें संसोधन द्वारा यह स्थापित किया गया है कि आप भारत की एकता और अखंडता को चुनौती नहीं दे सकते. ‘‘यानि यदि भारत और चीन का युद्घ चल रहा हो तो आपको “चीन के चेयरमेन हमारे चेयरमेन हैं’’ कहने से बलपूर्वक रोका जाएगा. हर बार आपको आतंकियों को मंच प्रदान करते हुए, उन्हें सम्मानित करते हुए, जनप्रतिनिधियों को अपमानित करते हुए, उनके विरूद्घ घृणा फैलाते हुए, नक्सलवाद का समर्थन करते हुए, अपने आलेखों द्वारा ‘‘कानून हाथ में लेने’’ का आव्हान करते हुए उपरोक्त का ख्याल रखना ही होगा। स्वैच्छिक या दंड के डर से आपको अपनी जुबान पर लगाम रखना ही होगा. मीठा-मीठा गप्प-गप्प करवा-करवा थूँ-थूँ नहीं चलेगा. संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का रसास्वादन करते हुए आपको 19 (2) की ‘‘दवा’’ लेनी ही होगी. आपको महात्मा गांधी के शब्द याद रखने ही होंगे कि ‘‘आजादी का मतलब उच्छृंखलता नहीं है. आजादी का अर्थ है स्वैच्छिक संयम, अनुशासन और कानून के शासन को स्वेच्छा से स्वीकार करना.’’
(प्रवक्ता डाट काम से साभार)
(मधुबनी (बिहार) में जन्म। माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर की उपाधि। अनेक प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर सतत् लेखन से विशिष्‍ट पहचान। कुलदीप निगम पत्रकारिता पुरस्‍कार से सम्‍मानित। संप्रति रायपुर (छत्तीसगढ़) में 'दीपकमल' मासिक पत्रिका के समाचार संपादक। इनसे jay7feb@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

No comments:

Post a Comment