Wednesday, November 20, 2013

सवालों के बीच राहुल और मोदी की जंग!

-संजय द्विवेदी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बीच राज्यों के मुख्यमंत्रियों से ज्यादा चर्चा देश के भावी प्रधानमंत्री की हो रही है। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की नाहक तुलनाओं के बीच तीसरा मोर्चा भी उफान मार रहा है। ऐसा लग रहा है कि देश अब चुनावी समर में उतर चुका है। पांच विधानसभाओं के ये चुनाव सिंहासन का सेमीफायनल माने जा रहे हैं। पिछले दो लोकसभा चुनाव हार चुकी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए नरेंद्र मोदी एक ऐसी संभावना दिख रहे हैं, जिससे इस चुनाव की वैतरणी पार की जा सकती है तो वहीं देश की सेकुलर राजनीति के चैंपियन बनने में लगे दलों को मोदी से खासा खतरा महसूस हो रहा है। यह खतरा यहां तक है कि उन्हें रामरथ के सारथी और अयोध्या आंदोलन के नायक लालकृष्ण आडवानी भी अब ‘सेकुलर’ लगने लगे हैं। जाहिर तौर पर इस समय की राजनीति का केंद्र बिंदु चाहे-अनचाहे मोदी बन चुके हैं। अपनी भाषणकला और गर्जन-तर्जन के अंदाजे बयां से उन्होंने जो वातावरण बनाया है वह पब्लिक डिस्कोर्स में खासी जगह पा रहा है। साइबर युद्ध में तटस्थता के लिए जगह नहीं- हालात ऐसे हैं पूरा समय मोदीमय बनता नजर आ रहा है। ऐसे में आप या तो मोदी के पक्ष में हैं या उनके खिलाफ। तटस्थ होने की आजादी भी इस साइबर युद्ध में संभव नहीं है। सवाल यह है कि क्या देश की राजनीति का इस तरह व्यक्ति केंद्रित हो जाना- वास्तविक मुद्दों से हमारा ध्यान नहीं हटा रहा है। क्योंकि कोई भी लोकतंत्र सामूहिकता से ही शक्ति पाता है। वैयक्तिकता लोकतंत्र के लिए अवगुण ही है। यह आश्चर्य ही है भाजपा जैसी काडर बेस पार्टी भी इस अवगुण का शिकार होती दिख रही है। उसका सामूहिक नेतृत्व का नारा हाशिए पर है। वैयक्तिकता के अवगुण किसी से छिपे नहीं हैं। एक समय में देश की राजनीति में देवकांत बरूआ जैसे लोगों ने जब “इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया” जैसी फूहड़ राजनीति शैली से लोकतंत्र को चोटिल करने का काम किया था, तो इसकी खासी आलोचना हुयी थी। यह अलग बात है पं.जवाहरलाल नेहरू जैसा लोकतांत्रिक व्यवहार बाद के दिनों में उनकी पुत्री के प्रभावी होते ही कांग्रेसी राजनीति में दुर्लभ हो गया। हालात यह बन गए राय देने को आलोचना समझा जाने लगा और आलोचना षडयंत्र की श्रेणी में आ गयी। जो बाद में इंदिरा गांधी के अधिनायकत्व के रूप में आपातकाल में प्रकट भी हुयी। हम देखें तो लोकतंत्र के साढ़े छः दशकों के अनुभव के बाद भी भारत की राजनीति में क्षरण ही दिखता है। खासकर राजनीतिक और प्रजातांत्रिक मूल्यों के स्तर पर भी और संसद-विधानसभाओं के भीतर व्यवहार के तल पर भी। गिरा बहस का स्तरः हमारे दिग्गज राजनेताओं वे बेनी प्रसाद वर्मा हों जयराम रमेश सबने वाणी संयम खो दिया है।जिस तरह की बहसें और अभियान चलाए जा रहे हैं वह उचित नहीं कहे जा सकते। इसमें राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना करने का अभियान भी शामिल है। दोनों तरफ से जिस तरह की अभद्रताएं व्यक्त की जा रही हैं वह विस्मय में डालती हैं। मोदी को लेकर उनके आलोचक जहां अतिवादी रवैया अपना रहे हैं, वहीं मोदी स्वयं अपने से आयु व अनुभव में बहुत छोटे राहुल गांधी को ‘शाहजादे’ कहकर चटखारे ले रहे हैं। इस तरह की चटखारेबाजी प्रधानमंत्री पद के एक उम्मीदवार को कुछ टीवी फुटेज तो दिला सकती है पर शोभनीय नहीं कही जा सकती। यह बड़प्पन तो कतई नहीं है। राहुल-मोदी एक ऐसी तुलना है जो न सिर्फ गलत है बल्कि यह वैसी ही जैसी कभी मनमोहन-आडवानी की रही होगी। भारतीय गणतंत्र दरअसल दो व्यक्तित्वों का संघर्ष नहीं है। यह विविध दलों और विविध विचारों के चुनावी संघर्ष से फलीभूत होता है। हमारे गणतंत्र में बहुमत प्राप्त दल का नेता ही देश का नायक होता है, वह अमरीकी राष्ट्रपति की तरह सीधे नहीं चुना जाता। इसलिए हमारे गणतंत्र की शक्ति ही सामूहिकता है, सामूहिक नेतृत्व है। यहां अधिनायकत्व के लिए, नायक पूजा के लिए जगह कहां है। इसलिए लोकसभा चुनाव जैसे अवसर को दो व्यक्तियों की जंग बनाकर हम अपने गणतंत्र को कमजोर ही करेगें। व्यक्तिपरक न हो राजनीतिः हमारी राजनीति और सार्वजनिक संवाद को हमें व्यक्तिपरक नहीं समूहपरक बनाना होगा क्योंकि इसी में इस पिछड़े देश के सवालों के हल छिपे हैं। कोई मोदी या राहुल इस देश के सवालों को, गणतंत्र के प्रश्नों को हल नहीं कर सकता अगर देश के बहुसंख्यक जनों का इस जनतंत्र में सहभाग न हो। क्योंकि जनतंत्र तो लोगों की सहभागिता से ही सार्थक होता है। इसलिए हमारी राजनीतिक कोशिशें ऐसी हों कि लोकतंत्र व्यक्ति के बजाए समूह के आधार पर खड़ा हो। श्रीमती इंदिरा गांधी मार्का राजनीति से जैसा क्षरण हुआ है, उससे बचने की जरूरत है। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दो बेहद अलग-अलग मैदान में खेल रहे हैं। किंतु हमें यह मानना होगा कि मोदी द्वारा उठाए जा रहे राष्ट्रवाद के सवालों से देश की असहमति कहां हैं। किंतु कोई भी राष्ट्रवाद कट्टरता के आधार पर व्यापक नहीं हो सकता। उसे व्यापक बनाने के लिए हमें भारतीय संस्कृति, उसके मूल्यों का आश्रय लेना पड़ेगा। एक समावेशी विकास की परिकल्पना को आधार देना होगा। जिसमें महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय और डा. राममनोहर लोहिया की समन्वित विचारधारा के बिंदु हमें रास्ता दिखा सकते हैं। विकास समावेशी नहीं होगा तो इस चमकीली प्रगति के मायने क्या हैं जिसके वाहक आज मनमोहन-मोंटेक सिंह और पी.चिदंबरम हैं। कल इसी आर्थिक धारा के नायक नरेंद्र मोदी- यशवंत सिन्हा-जसवंत सिंह और अरूण जेतली हो जाएं तो देश तो ठगा ही जाएगा। विचारधारा के उलट आचरण करती सरकारें- राहुल गांधी जो कुछ कह रहे हैं उनकी सरकार उसके उलट आचरण करती है। वे गरीब-आम आदमी सर्मथक नीतियों की बात करते हैं केंद्र का आचरण उल्टा है। क्या बड़ी बात है कि कल नरेंद्र मोदी सत्ता में हों और यही सारा कुछ दोहराया जाए। क्योंकि ऐसा होते हुए लोगों ने एनडीए की वाजपेयी सरकार में देखा है। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिग्गज स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी ने एनडीए सरकार के वित्त मंत्री को ‘अनर्थ मंत्री’ की संज्ञा दी थी। ऐसे में आचरण के द्वंद सामने आते हैं। भारतीय राजनीति का अजूबा यह कि मजदूरों-मजलूमों की नारे बाजी करने वाली वामपंथी सरकारें भी पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम रच देती हैं। ऐसे में जनता के सामने विमर्श के तमाम प्रश्न हैं, वह देख रही है कि मंच के भाषण और आपके सत्ता में आने के बाद के आचरण में खासा अंतर है। इसने ही देश के जनमन को छलने और अविश्वास से भरने का काम किया है। इसलिए मोदी को देश के सामने खड़े सुरक्षा के सवालों के साथ आर्थिक सवालों पर भी अपना रवैया स्पष्ट करना होगा क्योंकि उनके स्वागत में जिस तरह कारपोरेट घराने लोटपोट होकर उन पर बलिहारी जा रहे हैं, वह कई तरह की दुश्चिताएं भी जगा रहे हैं। पूंजीवाद को विकसित कीजिए न कि पूंजीवादियों कोः आने वाली सरकार के नायकों राहुल गाँधी और नरेंद्र मोदी को यह साफ करना होगा कि वे न सिर्फ समावेशी विकास की अवधारणा के साथ खड़े होंगें बल्कि आमजन उनकी राजनीति के केंद्र में होंगें। उनको यह भी तय करना होगा कि वे आर्थिक पूंजीवाद और विश्व बाजार की सवारी तो करेंगें किंतु वे पूंजीवाद को विकसित करेंगें न कि पूंजीवादियों को। राहुल गांधी के लिए भी यह सोचने का अवसर है कि आज कांग्रेस के सामने जो सवाल खड़ें हैं उसके लिए उनका दल स्वयं जिम्मेदार है। कांग्रेस की मौकापरस्ती और तमाम ज्वलंत सवालों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाकर पार्टी ने अपनी विश्वसनीयता लगभग समाप्त कर ली है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की सरकारों और कांग्रेस की सरकारों में चरित्रगत अंतर समाप्त होने के कारण जनता के सामने अब दोनों दल सहोदर की तरह नजर आने लगे हैं न कि एक-दूसरे के विकल्प की तरह। देश में जैसे हालात हैं, उसमें कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों, मंहगाई और भ्रष्टाचार के सवालों से ऊबी जनता को मोदी एक आशा की किरण नजर आ रहे हैं। किंतु हमें यह भी देखना होगा कि क्या गठबंधन सरकारें किसी भी राजनेता को इतना अवकाश देंगीं कि वे कोई परिवर्तनकारी कदम उठा सके। राष्ट्रीय राजनीति की आवश्यकता है कि देश में राष्ट्रीय चरित्र का विकास हो, राष्ट्रीय दल मजबूत हों और क्षेत्रीय व जातीय अस्मिता की राजनीति करने वाले दलों की ताकत सीमित हो। राष्ट्रीय दल को राष्ट्रीय चरित्र का विकास करते हुए अपनी शक्ति बढ़ाते हुए क्षेत्रीय आकांक्षाओं को भी संतुष्ठ करना होगा तभी एक सार्थक राजनैतिक विकल्प खड़ा होकर देश की समस्याओं को संबोधित कर पाएगा। ऐसा होता हुए नहीं दिख रहा है यह भविष्य की सबसे बड़ी दुष्चिंता है। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

क्यों सिकुड़ रहा है राष्ट्रीय दलों का जनाधार?

क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत से अखिलभारतीयता को मिलती चुनौती -संजय द्विवेदी अरसा हुआ देश ने केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं देखी। स्वप्न सरीखा लगता है जब राजीव गांधी ने 1984 के चुनाव में 415 लोकसभा सीटें जीतकर दिल्ली में सरकार बनायी थी। इतिहास ऐसे अवसर किसी किसी को ही देता है। राजीव गांधी को यह अवसर मिला, यह अलग बात है अपनी राजनीतिक अनुभवहीनता, अनाड़ी दोस्तों की सोहबत और कई गलत फैसलों से उनकी सरकार जल्दी विवादित हो गयी और बोफोर्स के धुंए में सब तार-तार हो गया। तबसे लेकर आजतक दिल्ली को एक ऐसी सरकार का इंतजार है जो फैसलों को लेकर सहयोगियों के दबावों से मुक्त होकर काम कर सके। जो अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को दृढ़ता के साथ लागू कर सके। भारतीय संविधान ने अनेक संवैधानिक व्यवस्थाएं करके केंद्रीय शासन को समर्थ बनाया है किंतु इन सालों में हमने प्रधानमंत्री को ही सबसे कमजोर पाया है। सत्ता के अन्य केंद्र, दबाव समूह, सत्ता के साझेदार कई बार ज्यादा ताकतवर नजर आते हैं। वीपी सिंह, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह सरकार सबकी एक कहानी है। इसका सबसे कारण है हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विफलता और उफान मारती क्षेत्रीय आकांक्षाएं। आखिर क्या हुआ कि हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल सिमटने लगे और क्षेत्रीय दलों का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। राष्ट्रीय दल होने के नाते कांग्रेस का पराभव हुआ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत घटी और भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस की छोड़ी हुयी जगहों को तेजी से भर नहीं पायी। जाहिर तौर पर अखिलभारतीयता के विचार और भाव भी हाशिए लग रहे थे। राष्ट्रीय राजनीतिक दल वैसे भी भारत में बहुत ज्यादा नहीं थे। सही मायने में तो कांग्रेस,जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियां ही अखिलभारतीयता के चरित्र का सही मायने में प्रतिनिधित्व करती थीं किंतु हालात यहां तक आ पहुंचे कि राजीव गांधी को जिस सदन ने 415 का बहुमत दिया, उसी सदन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तेलगू देशम थी- यानि कि एक क्षेत्रीय दल भारत का प्रमुख विपक्षी दल बन गया। यह समय ही भारत में राष्ट्रीय दलों के क्षरण का प्रारंभकाल है। तबसे आज तक क्षेत्रीय दलों की शक्ति और क्षमता को हम लगातार बढ़ता हुआ देख रहे हैं। समाजवादी आंदोलन के बिखराव ने सोशलिस्ट पार्टी को खत्म कर दिया या वे कई क्षेत्रीय दलों में बंटकर क्षेत्रीय आकांक्षाओं की प्रतिनिधि पार्टिंयां बन गयीं और बचे हुए समाजवादी कांग्रेस- भाजपा-बसपा जहां भी मौका मिला उस दल की गोद में जा बैठे। यह आश्चर्यजनक नहीं है नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह से लेकर भाजपा के आरिफ बेग तक एक समय तक समाजवादी ही थे। किंतु समय बदलता गया और राष्ट्रीय दलों का प्रभामंडल कम होता गया। आज हालात यह हैं कि बिना गठबंधन दिल्ली में कोई दल सरकार बनाने का स्वप्न भी नहीं देखता। जबकि राजनेता तो सपनों के सौदागर ही होते हैं। किंतु वास्तविकता यह है आने वाले आम चुनावों में जनता किस गठबंधन के साथ जाएगी, उसके लिए अपना कुनबा बढ़ाने पर जोर है। नरेंद्र मोदी जैसे समर्थ नेतृत्व की उपस्थिति के बावजूद भाजपा परिवार में चिंता है तो इसी बात की चुनाव के बाद हमें किन-किन दलों का समर्थन मिल सकता है। यह भी सही है कि इस दौर ने विचारधारा के आग्रहों को भी शिथिल किया है। वरना क्या यह साधारण बात थी कि एनडीए की अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में उमर अब्दुला, नीतिश कुमार, रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, अरूणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री गेगांग अपांग के बेटे तक मंत्री पद पर देखे गए। वहीं जयललिता से लेकर चंद्रबाबू नायडू वाजपेयी सरकार को समर्थन देते रहे। आज कांग्रेस के साथ भी बहुत से दल शामिल हैं। वे भी हैं जो कल तक एनडीए के साथ थे। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि राजनीति में अखिलभारतीयता के चरित्र को कैसे स्थापित किया जा सकता है। अखिलभारतीयता एक सोच है,संवेदना है और फैसले लेने में प्रकट होने वाली राष्ट्रीय भावना है। क्षेत्रीय दल उस संवेदना से युक्त नहीं हो सकते, जैसा राष्ट्रीय राजनीतिक दल होते हैं। क्योंकि क्षेत्रीय दलों को अपने स्थानीय सरोकार कई बार राष्ट्रीय हितों से ज्यादा महत्वपूर्ण दिखते हैं। उमर अब्दुला या महबूबा मुफ्ती को क्या फर्क पड़ता है यदि शेष देश को उनके किसी कदम से दर्द होता हो। इसी तरह नवीन पटनायक या जयललिता के लिए उनका अपना राज्य और वोट आधार जिस बात से पुष्ट होता है, वे वैसा ही आचरण करेंगें। लिट्टे के मामले में तमिलनाडु के क्षेत्रीय दलों के रवैये का अध्ययन इसे समझने में मदद कर सकता है। क्षेत्रीय राजनीति किस तरह अपना आधार बनाती है उसे देखना हो तो राज ठाकरे परिघटना भी हमारी सहायक हो सकती है। कैसे अपने ही देशवासियों के खिलाफ बोलकर एक दल क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करते हुए राज्य में एक शक्ति बन जाता है। निश्चित ही ऐसी राजनीति का विस्तार न सिर्फ घातक है बल्कि देश को कमजोर करने वाला है। इस तरह के विस्तार से सिर्फ केंद्र की सरकार ही कमजोर नहीं होती बल्कि देश भी कमजोर होता है। इसके लिए हमें इन कारणों की तह में जाना होगा कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि देश आज क्षेत्रीय दलों की आवाज ज्यादा सुनता है। देश के तमाम राज्यों जैसे जम्मू-कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडु, उप्र, बिहार, उड़ीसा, प.बंगाल, झारखंड में जहां क्षेत्रीय दल सत्ता में काबिज हैं तो वहीं अनेक राज्यों में वे सत्ता के प्रबल दावेदार या मुख्य विपक्षी दल हैं। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि राजनीति में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के दिल जल्दी बहुरने वाले हैं। क्षेत्रीय दलों के फैसले भावनात्मक और क्षेत्रीय आधार पर ही होते हैं। देश की सामूहिक आकांक्षाएं उनके लिए बहुत मतलब नहीं रखतीं। अपने स्थानीय दृष्टिकोण से बंधे होने के कारण उनकी प्रतिक्रियाएं क्या रूप ले सकती हैं, इसे हम और आप तेलंगाना की आग में जलते हुए आंध्र प्रदेश को देखकर समझ सकते हैं। दरअसल अखिलभारतीयता एक चरित्र है। भाजपा जब उसका विस्तार बहुत सीमित था तब भी वह एक अखिलभारतीय चरित्र की पार्टी थी। आज तो वह एक राष्ट्रीय दल है ही। इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टियां भले आज बहुत सिकुड़ गयी हैं, उनकी धार कुंद हो गयी हो किंतु वे अपने चरित्र में ही अखिलभारतीय सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसी तरह डा. राममनोहर लोहिया के जीवन तक समाजवादी पार्टी भी अखिलभारतीय चरित्र की प्रतिनिधि बनी रही। चौधरी चरण सिंह ने भले ही उप्र, राजस्थान और हरियाणा की पिछड़ा वर्ग, जाट पट्टी में अपना खासा आधार खड़ा किया किंतु उनकी लोकदल एक अखिलभारतीय चरित्र की पार्टी बनी रही। इसका कारण सिर्फ यह था कि ये दल कोई भी फैसला लेते समय देश के मिजाज और शेष भारत पर उसके संभावित असर का विचार करते हैं। पूरे देश में अपने दल की संगठनात्मक उपस्थिति के नाते वे अपने काडर-कार्यकर्ताओं-नेताओं पर पड़ने वाले प्रभावों और फीडबैक से जुड़े होते हैं। बावजूद इसके अखिलभारतीयता में आ रही कमी और राष्ट्रीय दलों के सिकुड़ते आधार के लिए इन दलों की कमियों को भी समझना होगा। क्योंकि आजादी के समय कांग्रेस ही सबसे बड़ा दल था जिससे देश की जनता की भावनाएं जुड़ी हुयी थीं। ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रीय दलों से लोग दूर होते गए और क्षेत्रीय दल शक्ति पाते गए। निश्चय ही इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल क्षेत्रीय आकांक्षाओं, भावनाओं, उनके सपनों को संबोधित नहीं कर पाए। बड़े राजनीतिक दल यह समझ पाने में असफल रहे कि कोई भी राष्ट्रीयता, स्थानीयता के संयोग से ही बनती है। स्थानीयता सह राष्ट्रीयता के मूलमंत्र को भूलकर तमाम क्षेत्रों,वर्गों की तरफ उपेक्षित निगाहें रखी गयीं, उसी का परिणाम है कि आज क्षेत्रीय और जातीय अस्मिताएं दलों के रूप में एक ताकत बनकर सामने आई हैं। वे अपनी संगठित शक्ति से अब न सिर्फ प्रांतीय-स्थानीय सत्ता में प्रभावी हुयी हैं वरन् वे केंद्रीय सत्ता में भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं। ऐसे में राजनीति की अखिलभारतीयता की भावना को खरोंचें लगें तो लगें इससे प्रांतीय, क्षेत्रीय और जातीय अस्मिता की राजनीति करने वालों को बहुत वास्ता नहीं है। वे केंद्रीय सत्ता को सहयोग देकर बहुत कुछ हासिल ही नहीं कर रही हैं, वरन कई बार-बार दिल्ली की सत्ता पर कब्जे का स्वप्न भी देखती हैं। देवगौड़ा को याद कीजिए, मायावती-मुलायम-नीतिश कुमार के सपनों पर गौर कीजिए। मिली-जुली सरकारों के दौर में हर असंभव को संभव होते हुए देखने का यह समय है। यह तो भला हो कि इन क्षेत्रीय क्षत्रपों की आपसी स्पर्धा और महत्वाकांक्षांओं का कि वे एक मंच पर साथ आने को तैयार नहीं हैं और छोटे स्वार्थों में बिखर जाते हैं, वरना क्षेत्रीय दलों के अधिपति ही ‘दिल्ली पति’ लंबे समय से बने रहते। इसके चलते ही कांग्रेस या भाजपा के पाले में खड़े होना उनकी मजबूरी दिखती है। बावजूद इसके यह सच है कि क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति से इस राष्ट्र का मंगल संभव नहीं है। राष्ट्रीय दलों को अपनी भूमिका को बढ़ाते हुए अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन करना होगा और अपने दम पर केंद्रीय सत्ता में आने के स्वप्न पालने होगें। क्योंकि मजबूत केंद्र के बिना हम अपनी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, देश की आकांक्षाओं, सपनों और ज्वलंत प्रश्नों को हल नहीं कर सकते। एक समन्वित रणनीति बनाकर अखिलभारतीय दलों को देश के ज्वलंत प्रश्नों पर एक राय बनानी होगी। कुछ सवालों को राजनीति से अलग रखते हुए देश में एक राष्ट्रीयता की चेतना जगानी होगी। कम्युनिस्ट पार्टियां तो देश की राजनीति में अप्रासंगिक हो गई हैं। समाजवादी आंदोलन भी बिखराव का शिकार है और अंततःजातीय-क्षेत्रीय अस्मिता की नारेबाजियों में फंसकर रह गया है। कांग्रेस, भाजपा की इस दिशा में एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने अखिलभारतीय चरित्र से देश को जोड़ने का काम करें। देश की राजनीति की अखिलभारतीयता का वाहक होने के नाते वे इस चुनौती से भाग भी नहीं सकते। ( लेखक राजनीति विश्लेषक हैं)