-संजय द्विवेदी
राजसत्ता का एक खास चरित्र होता है कि वह असहमतियों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। हमने इस पैंसठ सालों में जैसा लोकतंत्र विकसित किया है, उसमें जनतंत्र के मूल्य ही तिरोहित हुए हैं। सरकार में आने वाला हर दल और उसके नेता हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को भोथरा बनाने के सारे यत्न करते हैं। आज कैग और विनोद राय अगर सत्तारूढ़ दल निशाने पर हैं तो इसीलिए क्योंकि वे सीबीआई की तरह ‘अच्छे बच्चे’ नहीं हैं।
न्यायपालिका भी सत्ता की आंखों में चुभ रही है और चोर दरवाजे से सरकार मीडिया के भी काम उमेठना चाहती है। कैग, सरकार और कांग्रेस के निशाने पर इसलिए है क्योंकि उसकी रिपोर्ट्स के चलते सरकार के ‘पाप’ सामने आ रहे हैं। सरकार को बराबर संकटों का सामना करना पड़ रहा है। यही कारण है कि सरकार और उससे जुड़े दिग्विजय सिंह,मनीष तिवारी जैसे नेता कैग की नीयत पर ही शक कर रहे हैं। उसकी रिपोटर्स को अविश्सनीय बता रहे हैं। किंतु सरकार से जुड़ी संवैधानिक संस्थाएं अगर सत्ता से जुड़े तंत्र की मिजाजपुर्सी में लग जाएंगी हैं तो आखिर जनतंत्र कैसे बचेगा। सीबीआई ने जिस तरह की भूमिका अख्तियार कर रखी है, उससे उसकी छवि पर ग्रहण लग चुके हैं। आज उसे उपहास के नाते कांग्रेस ब्यूरो आफ इन्वेस्टीगेशन कहा जाने लगा है। क्या कैग को भी सीबीआई की तरह की सरकार की मनचाही करनी चाहिए, यह एक बड़ा सवाल है। हमारे लोकतंत्र में जिस तरह के चेक और बैलेंस रखे गए वह हमारे शासन को ज्यादा पारदर्शी और जनहितकारी बनाने की दिशा में काम आते हैं। इसलिए किसी भी तंत्र को खुला नहीं छोड़ा जा सकता।
न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में शक्तियों के बंटवारे के साथ-साथ, संसद के भीतर भी लोकलेखा समिति और तमाम समितियों में विपक्ष को आदर इसी भावना से दिया गया है। विरोधी विचारों का आदर और उनके विचारों का शासन संचालन में उपयोग यह संविधान निर्माताओं की भावना रही है। सब मिलकर देश को आगे ले जाने का काम करें यही एक भाव रहा है। तमाम संवैधानिक संस्थाएं और आयोग इसी भावना से काम करते हैं। वे सरकार के समानांतर, प्रतिद्वंदी या विरोधी नहीं हैं किंतु वे लोकतंत्र को मजबूत करने वाले और सरकार को सचेत करने वाले संगठन हैं। कैग भी एक ऐसा ही संगठन है। जिसका काम सरकारी क्षेत्र में हो रहे कदाचार को रोकने के लिए काम करना है। सीबीआई से भी ऐसी ही भूमिका की अपेक्षा की जाती है, किंतु वह इस परीक्षा में फेल रही है-इसीलिए आज यह मांग उठने लगी है कि सीबीआई को लोकपाल के तहत लाया जाए। निश्चय ही हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं, आयोगों और विविध एजेंसियों को उनके चरित्र के अनुरूप काम नहीं करने देंगें तो लोकतंत्र कमजोर ही होगा। लोकतंत्र की बेहतरी इसी में है कि हम अपने संगठनों पर संदेह करने के बजाए उन्हें ज्यादा स्वायत्त और ताकतवर बनाएं। सरकार में होने का दंभ, पांच सालों का है किंतु विपक्ष की पार्टियां भी जब सत्ता में आती हैं तो वे भी मनमाना दुरूपयोग करती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश के सबसे बड़े दल और लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी ने ऐसी परंपराएं बना दी हैं, जिसमें संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग तो दिखता ही है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने भी अपने पद की मर्यादा भुलाकर आचरण किया है। खासकर कांग्रेस के राज्यपालों के तमाम उदाहरण हमें ऐसे मिलेगें, जहां वे पद की गरिमा को गंवाते नजर आए। कैग ने अपनी थोड़ी-बहुत विश्वसनीयता बनाई है, चुनाव आयोग ने एक भरोसा जगाया है, कुछ राज्यों में सूचना आयोग भी बेहतर काम कर रहे हैं, हमें इन्हें संबल देना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ न्यायपालिका की सक्रियता का स्वागत करना चाहिए। मीडिया की पहल को भी सराहना चाहिए न कि हमें इन संस्थाओं को शत्रु समझकर इनकी छवि खराब करने या इन्हें लांछित-नियंत्रित करने का प्रयास करने चाहिए।
सत्ता में बैठे लोगों को बराबर यह लगता है कि उन्हें जनादेश मिल चुका है और अब पांच सालों तक देश के भाग्यविधाता वे ही हैं। उनके राज करने के तरीके में सवाल उठाने का हक न हमारी संवैधानिक संस्थाओं को है, न मीडिया को, न ही अन्ना हजारे या रामदेव जैसे जनता के प्रतीकों को। जाहिर तौर पर जनतंत्र की यह विडंबना हम भुगत रहे हैं और इसके अतिरेक में ही हम देश में एक आपातकाल भी झेल चुके हैं। सत्ता को भोगने की यह सनक ही हमारे दिमागों पर इस तरह कायम है कि हमें उचित-अनुचित का विचार भी नहीं रहता।
आज की राजनीति सवालों के वाजिब समाधान नहीं खोजती वह विषय को और उलझाकर विषय का विस्तार कर देती है। जैसे आप देखें तो अन्ना हजारे और रामदेव की मंडली के द्वारा उठाए गए सवालों के हल तलाशने के बजाए सरकार और उनकी एजेंसियां इनसे जुड़े लोगों के ही चरित्र चित्रण में लग गयीं। अब टूजी स्पेट्रक्ट्रम का सवाल गहराया तो सरकार अपने लोगों को दागदार होता देखकर राजग के कार्यकाल के समय के स्पेक्ट्रम आबंटन पर एफआईआर करवा रही है। इससे पता चलता है सवालों के समाधान खोजने के बजाए इस पर जोर है कि आप भी दूध के धुले नहीं हो। कुल मिलाकर आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी रैली और संसद के सत्र में विपक्ष के हमलों को भोथरा करने की यह सोची समझी चाल है। कैग जैसे संगठन अगर इसका शिकार बन रहे हैं तो यह राजनीति का ऐसा चरित्र है जिसकी आलोचना होनी चाहिए।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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