Saturday, August 7, 2010
वार्षिकांक का संपादकीय- एक सार्थक विमर्श के चार कदम
-डा. श्रीकांत सिंह
एक व्यापक वैचारिक प्रक्रिया में चार वर्ष की कालावधि बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती। जब प्रश्न मीडिया जैसे अत्यंत जटिल विषय का हो, जिसमें जीवन और समाज के प्राय सभी अंश समाहित होते हैं, तब तो उसकी विराटता कल्पना से परे है। अपने प्रभाव और अपनी पहुंच के कारण ‘मीडिया’ जिस तरह एक शक्ति स्रोत के रूप में समाज में प्रस्थापित है, उसे देखते हुए ऐसी वैचारिक प्रक्रिया और भी कठिन हो जाती है। खासकर तब जबकि उसमें आत्मचिंतन और आत्ममंथन जैसे अवयव समाहित हों।
ऐसे शक्तिशाली स्वरूप वाले मीडिया को विमर्श के साथ बांधकर, मूल्य न्याय, नीतियों और सिद्धांत की चर्चा करने का विनम्र किन्तु दुस्साहसी प्रयास चार वर्ष पूर्व ‘मीडिया विमर्श’ ने प्रारंभ किया था। इन चार सालों में पहुंच और भेदन क्षमता के मीडिया की शक्ति तथा प्रभावोत्पादकता भी बढ़ गई है। यह भी देखने में आया है कि मीडिया ने अपनी व्यापकता के कारण समाज में महत्वपूर्ण अवसरों पर निर्णायक भूमिका निभाई है। विभिन्न रूपों में मीडिया के ऐसे कई स्तुत्य प्रयास सामने आए हैं, जिनके कारण मीडिया के प्रति आस्था और श्रद्धा इजाफा हुआ है।
लेकिन सब कुछ सकारात्मक ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। मीडिया में विस्तारवाद, आपसी प्रतिस्पर्धा और बाजारवाद बढ़ा है। इस कारण मीडिया कई नैतिक प्रश्नों के लिए जवाबदेह हो गया है। मीडिया की नई भूमिका के कारण कई आधारभूत मूल्य अपने औचित्य पर लगे प्रश्न चिन्हों की ओर अचंभित होकर देख रहे हैं। आस्था और श्रद्धा बढ़ी है, लेकिन विश्वास डगमगा गया है। अन्य बाजारू चीजों की तरफ समाचारों और सूचनाओं की खरीद-फरोख्त के कारण मीडिया पर मंडी बनने का खतरा गहराने लगा है। निर्णय करना कठिन है कि अच्छाई का पलड़ा भारी है या बुराई का। यह भी निर्णय कठिन है कि समाज को सकारात्मक बनाने में मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई है या नकारात्मक बनाने में। यह भी तौला जाने लगा है कि समाज के कारण मीडिया कितना सशक्त हुआ है और मीडिया के कारण समाज कितना।
ऐसे प्रश्नों को देखकर लगता है कि ‘विमर्श’ की जरूरत पहले से और ज्यादा बढ़ गई है। मीडिया को लेकर चिंताओं का दायरा लगातार घनीभूत होता जा रहा है। मीडिया में काम कर रहे साथी भी अब मीडिया के इस स्वरूप को लेकर चिंतित और बहुत हद तक भयभीत हैं।चिंतन की सकारात्मक पहल जो पहले ऐच्छिक थी, अब अनिवार्यता से तब्दील होती जा रही है। ऐसे में ‘मीडिया विमर्श’ अपने अस्तित्व और औचित्य में, अधिक प्रासंगिक हो गया है। चार साल के अंतराल के बाद पीछे मुड़कर देखना अच्छा लगता है। कहां से चले थे, कहां आ गए और कहां जाएंगे जैसे विचार मन में कौंधने लगते हैं। समझ में आने लगता है कि जो कुछ किया, कहा, पाया वह कितना सही, कितना गलत था और कितना फासला तय करना है।
मीडिया विमर्श के वार्षिकांक में एक बड़ी बहस क्या रोमन में लिखी जाए हिंदी ?
इस बार की आवरण कथा हैः हा! हा!! HINDI दुर्दशा देखि न जाई!!!
रायपुर।
मीडिया विमर्श का सितंबर, 2010 का अंक 15 अगस्त तक बाजार में आ जाएगा। इस अंक में एक बड़ी बहस है कि क्या रोमन में लिखी जाए हिंदी। सितंबर के महीने की 14 तारीख को पूरा देश हिंदी दिवस मनाता है। इस वार्षिक कर्मकांड को जाने दें तो भी हम अपने आसपास रोजाना हिंदी की दैनिक दुर्दशा का आलम देखते हैं। ऐसे में हिंदी की ताकत, वह आम जनता ही है जो इसमें जीती, बोलती और सांस लेती है। बाजार भी इस जनता के दिल को जीतना चाहता है इसलिए वह उसकी भाषा में बात करता है। यह हिंदी की ताकत ही है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या हिंदी सिर्फ वोट मांगने और मनोरंजन की भाषा रह गयी है। इन मिले-जुले दृश्यों से लगता है कि हिंदी कहीं से हार से रही है और अपनों से ही पराजित हो रही है।
इन हालात के बीच हिंदी के विख्यात लेखक एवं उपन्यासकार श्री असगर वजाहत ने हिंदी को देवनागरी के बजाए रोमन में लिखे जाने की वकालत कर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। श्री वजाहत ने देश के प्रमुख हिंदी दैनिक जनसत्ता में 16 और 17 मार्च,2010 को एक लेख लिखकर अपने तर्क दिए हैं कि रोमन में हिंदी को लिखे जाने से उसे क्या फायदे हो सकते हैं। जाहिर तौर पर हिंदी का देवनागरी लिपि के साथ सिर्फ भावनात्मक ही नहीं, कार्यकारी रिश्ता भी है। श्री वजाहत की राय पर मीडिया विमर्श ने अपने इस अंक में देश के कुछ प्रमुख पत्रकारों, संपादकों, बुद्धिजीवियों, प्राध्यापकों से यह जानने की कोशिश की कि आखिर असगर की बात मान लेने में हर्ज क्या है। हिंदी दिवस के प्रसंग को ध्यान में रखते हुए यह बहस एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है जिससे हम अपनी भाषा और लिपि को लेकर एक नए सिरे से विचार कर सकते हैं। इस बहस को ही हम इस अंक की आवरण कथा के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आवरण कथा की शुरूआत में श्री असगर वजाहत का लेख जनसत्ता से साभार लिया गया है, इसके साथ इस विमर्श में शामिल हैं- वरिष्ठ पत्रकार एवं छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर, हिंदी के चर्चित कवि अष्टभुजा शुक्ल, दैनिक भास्कर-नागपुर के संपादक प्रकाश दुबे, देशबंधु के पूर्व संपादक बसंत कुमार तिवारी, नवभारत- इंदौर के पूर्व संपादक प्रो. कमल दीक्षित, प्रख्यात कवि-कथाकार प्रभु जोशी, हिंदी की प्राध्यापक डा. सुभद्रा राठौर।
इसके अलावा नक्सलवाद को बौद्धिक समर्थन पर प्रख्यात लेखिका अरूंधती राय के अलावा कनक तिवारी, संजय द्विवेदी, साजिद रशीद के लेख प्रकाशित किए गए हैं।जिसमें लेखकों ने पक्ष विपक्ष में अपनी राय दी है। इसके अलावा अन्य कुछ लेख भी इस अंक का आकर्षण होंगें। पत्रिका के इस अंक की प्रति प्राप्त करने के लिए 25 रूपए का डाक टिकट भेज सकते हैं। साथ ही वार्षिक सदस्यता के रूप में 100 रूपए मनीआर्डर या बैंक ड्राफ्ट भेज कर सदस्यता ली जा सकती है। पत्रिका प्राप्ति के संपर्क है-
संपादकः मीडिया विमर्श, 328, रोहित नगर,
फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल- 39 (मप्र)
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